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ही इस कला का ह्रास होने लगा और चित्रकला से संयुक्त लेखन-कला मात्र इतिहास में उल्लेख की वस्तु रह गयी।
श्री प्रमोदरुचि अच्छे कवि तो थे ही, एक मर्मी संगीतज्ञ, अप्रमत्त लेखक और कुशल ग्रन्थागार-संरक्षक भी थे। उनके समय में भीडर का शास्त्र-भण्डार अपने ग्रन्थ-वैभव के कारण सुप्रसिद्ध था। घाणेराव (मारवाड़) के चातुर्मास में, जिसने यति-संस्था को जड़मूल से ही बदल डाला, आप भी श्रीमद्राजेन्द्रसूरि के साथ थे। उन्हें श्रीमद् की सम्यक्त्व-चिन्तना और समाजोद्धार के भावी संकल्पों में यति-संस्था एवं श्रावक-वर्ग के कल्याण का उन्मेष स्पष्ट दिखायी दे रहा था। उन्होंने श्रीमद् में एक विलक्षण सांस्कृतिक नेतृत्व को अंगड़ाई लेते अनुभव किया था। श्रीपूज्य ने इत्र की घटना को लेकर जब श्रीमद् की अवमानना को और उन्हें चेतावनी दी, तब कविवर भी राजेन्द्रसूरिजी के साथ उस कंटीली डगर पर चल पड़े जो उस समय अनिश्चित थी और जिस पर चलने में कई सांस्कृतिक खतरे स्पष्ट थे। श्रीपूज्य के आश्रय में उपलब्ध यतिसुलभ सुखोपभोगों को तिलांजलि देकर प्रमोदरुचिजी ने जिस साहस का परिचय दिया, वह ऐतिहासिक था और उसने श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की योजनाओं को एक संकीर्ण डगर से निकालकर एक निष्कण्टक राजमार्ग पर लाने में बहुत बड़ी सहायता की। अन्य शब्दों में प्रमोदरुचिजी राजेन्द्रसूरिजी के दाहिने हाथ थे। श्रीमद् के साथ कविवर ने भी सन् १८७३ में जावरा में क्रियोद्धार के अवसर पर दीक्षोपसंपद ग्रहण की। कविवर का व्यक्तित्व विलक्षण था; वे सद्गुणग्राही, नीर-क्षीर-विवेकी और पण्डित-जीवन के आकांक्षी थे। श्रीमद् के प्रति उनके हृदय में अपरिसीम श्रद्धा-भक्ति थी, जिसका परिचय "विनतिपत्र” से सहज ही मिलता है । श्रीमद् को सम्बोधित प्रस्तुत 'विनतिपत्र' कविवर ने अपने दोहद-वर्षायोग (१८७३ ई.) में लिखा था । मूल 'विनतिपत्र' विस्तृत है, अतः यहाँ हम उसके कुछ अंश ही उद्धृत कर रहे हैं :
'परमगुरु प्रणमं सदा, रतनावत जस भास । राजेन्द्रसूरि रत्नगुण, गच्छपति गहर निवास ।। ना कछु चित्त विभ्रम पणे, ना कछु लोकप्रवाह । परतिख गुण सरधा विषे, धारित भयो उछाह ।। मुनि जंगम कल्पद्रुमा, वांछित पूरण आस । भव-भव के अघ हरन को, फल समकित दे खास ।।
उपकारी अवतार हो, प्रभु तुम प्रवर निधान । भविपंकज पडिबोहने, विकसित उदयो भान ।। त्यागी बड़भागी तुमे, सूरवीर ससधीर।। जिनशासन दिग्विजयति, वादीमद-जंजीर ।। वादि-दिग्गज कैहरी, कुमतिन को करवाल । स्याद्वाद की युक्तियुक्त, बोधे सहु मति बाल ।।
तीर्थंकर : जून १९७५/५०
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