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कविवर प्रमोदरुचि और उनका ऐतिहासिक 'विनतिपत्र'
सम्यक्त्व और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए श्रीमद्राजेन्द्रसूरीश्वर ने जो कदम उठाये थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था । परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुरीतियों, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में उन्होंने आत्मनिरीक्षण करते हुए परिशुद्धि का जो शंखनाद किया था, कविवर प्रमोदरुचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था। कवि का मन क्रान्ति की इस अपूर्व चेतना से पुलकित था। उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना लद गया है और श्रीमद् के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है।
0 इन्द्रमल भगवानजी
कविवर प्रमोदरुचि भींडर (मेवाड़, राजस्थान) के विख्यात उपाश्रयाधीश यतिवर्य श्री अमररुचि से १८५६ ई. में दीक्षित हुए थे। इस परम्परा के अन्तर्गत मेवाड़-वर्तुल के अनेक उपाश्रय विशाल ग्रन्थागारों से संयुक्त थे। उपाश्रयाधीशों की इस पीढ़ी में कई मेधावी विद्वान् हुए, जिन्होंने स्वयं तो विपुल साहित्य-रचना की ही, अन्य अनेक विद्वानों और लिपिकों (लेहियाओं) को भी आश्रय दिया। उनकी इस सत्प्रवृत्ति का सूफल यह हआ कि कई मौलिक ग्रन्थ लिखे गये और लेहियाओं द्वारा उपाश्रयों से जुड़े ग्रन्थागार व्यवस्थित रूप में समृद्ध हुए। श्रीपूज्यों की परिष्कृत रुचियों के कारण ये ग्रन्थागार व्यवस्थित हुए और इन्होंने विद्वानों की एक अट पीढ़ी की रक्षा की। वैसे अधिकांश यति खुद अच्छे लेखक होते थे
और समय-समय पर विविध विषयों पर अपनी लेखनी उठाते थे, किन्तु साथ ही वे अपने निकटवर्ती क्षेत्र के विद्वानों को भी साहित्य-सृजन के लिए प्रेरित करते थे। वे लेखन-सम्बन्धी उपकरणों की निर्माण-विधियों, ग्रन्थों के संरक्षण, उनके अलंकरण, उनके आकल्पन तथा उनकी कलात्मक सज्जा-रचना में निष्णात होते थे, यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी तक लेखन और चित्रकलाएँ परस्पर एक-दूसरे की पूरक विद्याएँ रहीं और एक-दूसरे को समृद्ध करती रहीं। १९ वीं सदी में, जबकि सारा मल्क राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल का शिकार था, लेखन
और चित्रकला के मर्मज्ञ यतियों ने हस्तलिखित ग्रन्थों की परम्परा का संरक्षण किया और उसे अटूट बनाये रखने के प्रयत्न किये; किन्तु देश में मुद्रण के सूत्रपात के साथ
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/४९
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