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________________ डाक-पंजीयन : इन्दौर डी. एन./नं 62 (म.प्र.) जैसे शरीर में सिर, वृक्ष में जड़, वैसे साधुत्व में ध्यान Tity भगवान महावीर ने कहा था-- 0 जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचन कायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है। 0 जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को सूस्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के गांव अथवा बियावान विजन वन में कोई अन्तर नहीं रह जाता। 0 ध्यान-योगी अपनी आत्मा को शरीर तथा समस्त बाहरी संयोगों से भिन्न देखता है अर्थात् देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है। 0 जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तवन करता है कि "मैं न पर का हूँ, न पर मेरे हैं, मैं तो शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ।" 0 ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे चिर संचित ईंधन को वाय से उद्दीप्त अग्नि तत्काल जला डालती है. वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कम-ईंधन को क्षण-भर में भस्म कर डालती है। वमनागर सरिजन RDY [श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (राजस्थान) द्वारा प्रचारित] Jain Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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