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(राजेन्द्रसूरि का समकालीन भारतः पृष्ठ ९४ का शेष) था। अंग्रेज अपनी ओर से यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति को भारतीयों पर थोपने की पूरी कोशिश कर रहे थे। दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज, राजा राममोहन राय का ब्रह्मसमाज, रानाडे का 'प्रार्थना-समाज' देश में एक नयी चेतना के लिए कटिबद्ध थे। सबका लक्ष्य राष्ट्र में नवजागरण लाना था। वे अंग्रेजों की गुलामी के प्रति भी असहिष्णु होने लगे थे। उन्हें लग रहा था कि इन विदेशियों को इस धरती पर से आज नहीं तो कल हटाना होगा और तदनुरूप वातावरण की रचना करना होगी। १८५४ में श्रीनारायण गुरु, १८५६ में बाल गंगाधर तिलक, १८६१ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, १८५८ में जगदीशचन्द्र बसु, १८६४ में स्वामी विवेकानन्द और १८६९ में मोहनदास करमचन्द गाँधी के जन्म हो चुके थे। राजनीति, धर्म और संस्कृति सभी क्षेत्रों में एक व्यापक क्रान्ति जन्म लेने वाली है, ऐसे आसार स्पष्ट दिखायी देने लगे थे। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय महत्त्वपूर्ण था। कहा जाएगा कि साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, भाषा, लिपि, राजनीति, अर्थ और उद्योग सभी क्षेत्रों में क्रान्ति का मंगलाचरण पढ़ा जा चुका था। सूरिजी की क्रान्ति यद्यपि उतनी आधुनिक नहीं थी और उनका इनमें से किसी से कभी साक्षात् नहीं हुआ तथापि उनके कार्य-कलाप से इस बात की स्पष्ट सूचना मिलती है कि वे जो कुछ कर रहे थे, उसकी लय उन दिनों की क्रान्तिभावना से तालमेल रखती थी। “सत्यार्थ प्रकाश", "भारतीय प्राचीन लिपि माला" और "अभिधान-राजेन्द्र" भाषाई क्रान्ति की दृष्टि से महत्त्व के ग्रन्थ थे। सूरिजी की “कल्पसूत्र की बालावबोधिनी टीका" जो सरल गजराती किन्तु नागरी लिपि में प्रकाशित हुई, एक महत्त्व की रचना थी। उसने धार्मिक होने के कारण यद्यपि सारे भारतीयों को नहीं छुआ तथापि उसका अपना महत्त्व है भाषा और लिपि की दृष्टि से। उसी तरह १८९९ में सम्पादित “पाइयसहबुहि" और १९०३ में तैयार सूरिजी का "अभिधान-राजेन्द्र" विश्वकोश प्राच्यविद्या के क्षेत्र में महत्त्व की रचनाएँ थीं। उनका महत्त्व कम से कम उतना तो है ही कि जितना १८८१ में प्रकाशित बंकिमचन्द्र चटर्जी के "आनन्दमठ' का, १८९४ में प्रकाशित "भारतीय प्राचीन लिपिमाला" का, या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की “अन्धेर नगरी" और "भारतदुर्दशा” कृतियों का। इन सभी कृतियों ने अपने स्थान पर जो गज़ब किया है, उसकी कल्पना हम आज नहीं कर सकते। एक ऐसे समय जबकि पढ़ने के किसी स्पष्ट माध्यम का उदय नहीं हो पाया था और अंग्रेज अपनी पूरी ताकत से देशी भाषाओं के अध्ययन को हतोत्साहित कर रहे थे, सीमित क्षेत्रों में ही सही इन समस्त कृतियों का राष्ट्रीय महत्त्व था। सूरिजी ने प्राच्य-विद्या के क्षेत्र में तथा लोकभाषा के क्षेत्र में, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के क्षेत्र में और हीराचन्द गौरीशंकर ओझा ने लिपि के क्षेत्र में समानान्तर महत्त्व की भूमिकाएं निभायीं।
तीर्थकर : जून १९७५/२००
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