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________________ जाता है । काम घट भर जाता है-कामधेनु और चित्रावेलि-सा । और कण-कण बन जाता है पंचामृत । दूसरी ओर है ठेला गया चित्त । व्रत, नियम, उपनियम, स्नान, ध्यान, घंटा, नमाज और तीर्थों में उलझा चित्त । बाहय का ऐसा इस्पाती घेरा कि टूटे नहीं टूटता और जिन्दगी टूट जाती है । सीम की ऐसी कठोर रेखा कि जीवन चुक जाता है और धूमिल भी नहीं पड़ती। बन्द कमरों का ऐसा सूचीभेद्य तमस् कि आँखें पथरा जाती हैं और एक किरण के दर्शन नहीं होते। बात थी भमा तक पहुँचने की, बात थी ज्योति गमय की, किन्तु बाहर के ये अभेद्य घेरे, वज्रमयी कपाट, क्रम की अर्थवत्ता ही व्यर्थबना देते हैं। तो जैन मुनियों ने उसे सही अर्थों में अर्थवान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सहज के द्वारा श्रद्धा के साथ चिपके बाहय घेरों को तोड़ने की बात कही। मुनि रामसिंह ने 'दोहा पाहुड' में मुंड मंडाने की व्यर्थता बताते हए लिखा, “हे मुण्डितों में श्रेष्ठ ! सिर तो तूने अपना मुंडा लिया, पर चित्त को नहीं मुंडाया । संसार का खण्डन चित्त को मुंडाने वाला ही कर सकता है ।" भैया भगवतीदास ने “नाममात्र जैनी पैन सरधान शुद्ध कहूं, मंड के मुंडाये कहा सिद्धि भई बावरे।" के द्वारा श्रद्धान के बिना केवल मूंड मुंडाने को पागलपन कहा है । यहाँ तक ही नहीं, उन्होंने जप, तप, व्रत, उपवास, योग आदि को भी चित्त-शुद्धि के बिना निरर्थक माना । कवि भूधरदास ने भी बाहयाडम्बरों को व्यर्थ बताया और स्वस्थ चित्त को ही मूलाधार माना। उनका कथन था कि नीलवस्त्र जैसे मलिन चित्त से जप-तप, व्रत निरर्थक हैं। प्रसिद्ध विद्वान् कवि यशोविजयजी उपाध्याय का अभिमत है कि चित्त के भीगे बिना आत्मब्रह्म के दर्शन नहीं हो सकते। संसार के कुछ मढ़मति कर्मकाण्ड से आत्मदर्शन मानते हैं और कुछ केवल ज्ञान मात्र से, किन्तु वह दोनों से न्यारा है, ऐसा कोई नहीं जानता । उसका रस-भाव-भीनी तल्लीनता से प्राप्त होता है। इसी को महात्मा आनन्द तिलक ने संक्षेप में कहा कि'परमानन्द' शरीर को स्वच्छ करने से नहीं, अपितु चित्त को निर्मल बनाने से प्राप्त होता है, कवि बनारसीदास ने लिखा कि दिगम्बर दशा भी व्यर्थ है, यदि मन पवित्र नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मध्य काल के जैन साधकों और हिन्दी के कवियों ने बायाडम्बरशून्य स्वतः स्फूर्त श्रद्धा के विशेषण रूप में सहज शब्द को स्वीकार किया। यही सम्यग्दर्शन सम्यक् श्रद्धा अथवा सहज श्रद्धा जैन भक्ति का आधार-स्तम्भ था । नीड़ और पिंजरा अन्तर है बनाया है तुमने, नीड़ और पिंजरे में दूसरे को इतना ही कि तुम्हारे लिए एक को किसी और ने -सेठिया तीर्थंकर : जून १९७५/१८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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