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________________ वैरमूलक व्यवहार में से ही ऐसे शब्दों की अथवा उनके अर्थ-विपर्यय की सृष्टि हुई है। अशोक जैसे की 'देवनांप्रिय' बहजन-सम्मत उपाधि का भी ब्राह्मणों ने 'मूर्ख पशु' अर्थ ही नहीं कर दिया अपितु इस शब्द का इसी अर्थ में प्रचलन भी किया है। वैदिक निष्ठा सब जीवों का सम्बन्ध 'एक' के साथ मानती है और इसीलिए वह समाज-जीवन को बहुत महत्त्व देती है। यह भी कारण है कि उसमें सामाजिक नीति की रचना पायी जाती है। जो व्यक्ति समाज की इकाई रूप में अपने को स्वीकार करे, उसका जीवन समाज के प्रतिकूल हो नहीं सकता है; इसलिए उसमें समाजशास्त्र की रचना है। एक सामाजिक प्राणी का जीवन-व्यवहार और उसकी रीति-नीति जैसी होनी आवश्यक है, उससे विपरीत व्यक्तिनिष्ठ श्रमणों में समाज-व्यवस्था के लिए स्मतियाँ नहीं हैं। यदि केवल व्यक्तिनिष्ठा ही स्वीकार की जाए तो जीवन-व्यवहार ही सम्भव नहीं हो। अतः श्रमणों के भी संघ बन गये और ऐसे संघों के व्यवस्थित करने के लिए आचार और विनय के नियम भी बने ही। ____ सारांश यह कि उपरोक्त रीति से दोनों परम्पराओं का समन्वय तो हुआ है, फिर भी दोनों की भेदक रेखा वेद-मान्यता एवं अमान्यता तो कायम ही रही और इसीलिए सर्वांशतः एकता उनमें कभी नहीं आ पायी और न आ पाना सम्भव ही है; क्योंकि दोनों की मूलनिष्ठा में ही भेद है और इसका निवारण न हो वहाँ तक सम्पूर्ण ऐक्य सम्भव ही नहीं है। अतः अब विचारणीय यह हो जाता है कि यह मूल निष्ठा दोनों की क्यों जुदा रहती है ? उसमें ऐक्य को अवसर नहीं मिलने के कारण क्या हैं ? समग्र विश्व के मूल में कोई एक ही तत्त्व-परम तत्त्व है, उसीमें से इस विश्व-प्रपञ्च की सृष्टि हुई है, यह वैदिक निष्ठा, मान्यता है। इस परम तत्त्व का ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर आदि नाना नामों से परिचय कराया जाता है। इस मूलनिष्ठा को स्थिर रखकर ही भिन्न-भिन्न वैदिक परम्पराएँ प्रचलित हुई हैं और इन सब परम्पराओं में इस परम तत्त्व की उपासना को अनेक नामों से स्थान प्राप्त हुआ है। यद्यपि इसी एक तत्त्व में से अथवा एक ही तत्त्व के आधार या निमित्त से समग्र विश्व-सृष्टि की उत्पत्ति का स्पष्टीकरण करने को अनेक मत-मतान्तर, अनेक वैदिक दर्शन विकसित हुए हैं, परन्तु उन सबमें 'एक' की निष्ठा समान रूप में कायम है। ____इसके विपरीत श्रमण-परम्परा में ऐसा कोई 'एक' तत्त्व स्वीकृत नहीं हुआ कि जो समग्र विश्व-प्रपञ्च के लिए उत्तरदायी हो। यह संसार-लीला अनादि काल से चली आ रही है और इसके लिए उत्तरदायी अनेक जीव स्वयम् ही हैं, दूसरा कोई नहीं। सारांश यह कि अनादि काल से एक नहीं अपितु अनेक मूल तत्त्व हैं। अतः इसमें किसी एक की उपासना को वस्तुत: स्थान हो नहीं सकता है। तीर्थकर : जून १९७५/१७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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