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गीत
क्यों करें हम रूप पर अभिमान चार दिन का जबकि यह मेहमान
तरु-शिखर-गिरिशृंग पर मैदान-पनघट फैल सौध-वन-उपवन सभी घर-आँगनों से खेल बात कर हर फूल से चढ़ हर लहर पर धूप गाती-गानउम्र चढ़ती है, धधकती रूप-यौवन-ज्वाल फूट पड़ते गीत-अधरों पर, कि गति में ताल और जब ढलती जरा की साँझ धूप-सी डूबी कि तम में रूप की मुसकानफैलती जाती कि मानव रूप-रस की गन्ध हेम-हिरनी-सी बना देती मनुज को अन्ध नयन में नवज्योति फैली खींचती है वासना भी और पुरुष-कमानअन्त में बनता वही निरुपाय-रे निर्बल जिन्दगी की साँझ में वह सूर्य जाता ढल रोक पाया कौन गति को जब उदधि में काल के, डूबे मनुज के प्राण
-डॉ. छैलविहारी गुप्त
तीर्थकर : जून १९७५/१५२
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