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________________ प्रवचन--प्रोच्यतेऽनेनास्मादस्मिन् वा जीवाऽऽदयः पदार्था इति प्रवचनम् । जिन वचनों के द्वारा या जिन वचनों में जीव अजीव आदि पदार्थों का व्याख्यान किया जाता है, उसे प्रवचन कहते हैं। समण--श्रमण । समिति समतया शत्रुमित्रादिषु अणति प्रवर्तते इति समणः । स्थानांग ४ ठा. ४ उ.। (७. ४१०) शत्रु-मित्रादिकों पर समताभाव से वर्तन करने वाला श्रमण है। समय--न.। सममेव समकम् । सम्यगवैपरीत्येनायन्ते ज्ञायन्ते जं वादयोऽर्था अनेनेति समयः, सम्यगयन्ति गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वास्मिन् रूपे प्रतिष्ठां प्राप्नुवन्ति अस्मिन्निति समयः। (७. ४१८)। सम होना ही समय है। जिससे सम्यक रूप से जीव, अजीव आदि पदार्थ जाने जाते हैं, वह समय है। जीवादि पदार्थ अपने ही रूप में परिणमन व गमन करते हैं, उस आत्मा को भी 'समय' कहते हैं। सामाइय--सामायिक-न.। रागद्वेषविरहितः समस्तस्य प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभताया विशद्धरायोलाभः समायः स एव सामायिकम। विशे. । 'सामायिकम्' इति समानां ज्ञानदर्शनचारित्राणां आय:-समायः, समाय एवं सामायिक विनयादि पाठात् स्वार्थे ठक् । (७. ७०१) राग-द्वेष रहित स्थिति की उपलब्धि के लिए प्रत्येक क्षण अपूर्व कर्म-निर्जरा की हेतुभूत विशुद्धि का जिसमें लाभ होता है, वह सामायिक है। सम्यक् ज्ञान-दर्शनचारित्र की प्राप्ति होना भी सामायिक है। सावग (य)--श्रावक पं.। शृणोति जिनवचनमिति श्रावकः । (७. ७७९) जो जिनेन्द्रदेव के वचन सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं। सावज्ज--सावघ-नः । अवद्यं पापं सहावद्येन वर्तते इति सावद्यम् । सपापे। (७. ७८७) 'सावद्य' शब्द 'स' और 'अवद्य' इन दो शब्दों से मिल कर बना है। 'अवद्य' का अथ 'पाप' है। जो पाप-सहित है, वह सावध है। सियवाय--स्याद्वाद-। स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादः । अनेकान्तवादे, नित्यानित्याद्यनेक धर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगमे। स्यादस्तीव्यादिकोवादः, स्याहाद इति गीयते। (७. ८५५) 'स्यात्' यह अव्यय है, जो अनेकान्त का द्योतक है। अनेकान्तवाद में नित्यअनित्य आदि धर्म एक ही वस्तु में प्राप्त होते हैं। अनेक धर्मों का अस्तित्व जिसमें है, वह स्याद्वाद कहा जाता है। सुत्त--सूत्र-न.। अर्थानां सूचनात् सूत्रम् । अनु. । विशे। तत्तदर्थसूचनात् सूत्रम् । औणादिक शब्द-व्युत्पत्तिः। (७. ९४१) अर्थों का सूचन करने से सूत्र कहा जाता है। जो उन-उन (विशेष) अर्थों का सूचन करने वाला हो, वह सूत्र है। ___ इन निरुक्तियों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि ये कहीं-कहीं सटीक तथा संक्षिप्त होने पर भी यथार्थता को सूचित करने वाली हैं। इनसे समन्वित होने के कारण कोश की गरिमा निश्चित ही वृद्धिंगत हुई है। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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