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धम-प्रभावना रहा और इसलिए लोग जिस भाषा को समझते हों, उसी का आधार लेकर उन्होंने अपने धार्मिक भावों को अभिव्यक्ति दी। कभी वे संकृत की रत्नशिविका में बैठकर चले तो कभी प्राकृत के पल्यंक पर विराजमान हुए। कभी अपभ्रंश की विधि को धन्य किया तो कभी प्रान्तीय भारतीयों को समृद्ध किया । लोकभावना का सम्मान .:..:.:. इसके प्रमाण के लिए जैन साहित्य के दृष्टाओं, दर्शनेच्छुओं को तमिल में लिखित जीवन्धर चरित, कन्नड़ में पम्प कवि का आदिपुराण, अपभ्रंश में स्वयम्भू महाकवि का पउमचरिउ, प्राकृत में धवला, जयधवला और गोम्मटसार, मराठी में जनार्दन कवि का श्रेणिक पुराण और अन्यान्य विविधभाषी ग्रन्थों का अनुशीलन करना चाहिये । जैन श्रमण-परम्परा ने भारत की प्रान्तीय भाषाओं और प्राचीन धार्मिक भाषाओं का समत्वयोग से उपबृहण किया है। यह दृष्टिकोण असाधारण है और लोकभावना को सम्मान देने वाला है । वस्तुत: जिनके धर्ममय विश्वासों पर भगवान् महावीर के सर्वोदयी तीर्थ के संरक्षण, संवर्धन का महान् दायित्व है उन्हें विविध भाषाओं से परिचय रखना ही चाहिये। यही उनकी वीतरागता का प्रमाण है कि उन्हें किसी भाषा से राग नहीं, आग्रह नहीं। बहुभाषाविद् होने का एक लाभ यह भी होता है कि धर्मोपदेष्टा अपनी बात बहुतों तक पहुँचा देता है
और उनकी बात को सुन-समझ लेता है। नित्य परिभ्रमण करने वाले मुनियों के लिए तो यह बहुज्ञता और अधिक महत्त्वपूर्ण है। भाषा : साधन; अनुभूति : साधना
देश-देश में अलग-अलग भाषाएँ हैं । जो जिस देश का निवासी है वह उसी देश की भाषा बोलता है, यह स्वाभाविक है। भाषा में अपनी संस्कृति का इतिहास अंकित है और आत्मीयता के सूत्र लिखे हैं। अपनी-अपनी मातृभाषा के प्रति व्यक्तियों का आग्रह सहज होता है; किन्तु आग्रह को इतनी रूढ़ता तक नहीं ले जाना चाहिये कि वह वैर, कलह और वैमनस्य की भूमि बन जाए। विश्व के सभी मनुष्यों का काम भाषा से चलता है। वह भाषा उसके व्यवहार-साधन में उपयोगी है किन्तु साध्य नहीं । जब कोई उसे साध्य मानकर स्वयं साधन बन जाता है तो कलह का सूत्रपात हो जाता है। किसी व्यक्ति को वाष्पयान और किसी को वायुयान पसन्द है। दोनों अपनी-अपनी रुचि के वाहनों से यात्रा करते हैं, किन्तु गन्तव्य स्टेशन पर पहुँचते ही वे दोनों वाहनों को भूलकर अपने घर चले जाते हैं। यही भाषाओं की स्थिति है। भावों को व्यक्त करने के उपरान्त भाषाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है; अतः भाषाएँ साधन हैं और व्यक्ति उनसे उपयोग लेने वाला उपभोक्ता है। वाहन पर सवार व्यक्ति अपनी मंजिल तक पहुँच जाता है किन्तु जो वाहन को अपने ऊपर बैठाकर चलता है वह वाहन के भार से मध्यमार्ग में ही थककर बैठ जाता है।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१२१
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