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शब्द और भाषा
भाषा के रथ पर बैठ कर भाव यात्रा करते हैं। भाषा भावों के आभूषण पहन कर महासाम्राज्ञी की गरिमा धारण करती है। भावों के बिना भाषा विधवा है और भाषा के बिना भाव अमूर्त हैं। इनका परस्पर सहचारि भाव हैं। भावों के बिना भाषा चल नहीं सकती, आखिर वह तो खाली गाड़ी के समान है ; यात्री तो भाव हैं, जिन्हें लेकर शब्दगाड़ी को चलना होता है।
0 उपाध्याय मुनि विद्यानन्द
शब्द वर्णात्मक हैं
शब्द का अर्थ ध्वनि है और इस निरुक्ति से शब्द ध्वन्यात्मक है। इस ध्वनि को अपने व्यावहारिक स्थैर्य के लिए मानव ने आकृतिबद्ध कर लिया है, अतः शब्द वर्णात्मक है। तर्कशास्त्रियों ने इसी बात का निर्वचन करते हुए लिखा है-'शब्दो द्विविधः । ध्वन्यात्मको वर्णात्मकश्च । तत्र ध्वन्यात्मको भेर्यादौ, वर्णात्मकश्च संस्कृतभाषादिरूपः'-वस्तुतः ध्वनि शब्द का स्फोट है और वर्ण उसकी आकृतिपरक रचना है। मानव-जाति का लोकव्यवहार परस्पर बोल कर अथवा लिख कर चलता है। वह अपने विचारों को लिख कर स्थिरता प्रदान करना चाहता है। किसी एक समय वाणी द्वारा प्रतिपादित अथच चिन्तन में आये हुए भाव किसी अन्य समय में विस्मत हो जाते हैं, इसी विचारणा ने लेखन-प्रक्रिया का आरम्भ किया। इस लेखन-प्रणाली से विश्व के किसी भी भाग पर स्थित मनुष्य अपने संदेश को दूरातिदूर स्थानों तक पहुँचा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि लिपिमयी भाषा का विकास न हुआ होता तो मनुष्य साक्षात् वार्तालाप तो कर सकता था किन्तु उन्हें स्थिरता प्रदान नहीं कर सकता था। जीभ हाथों के सिपुर्द
इस महत्त्वपूर्ण शब्द-स्थैर्यकरण विद्या को जिस दिन लिखित रूप मिला, लिपिशक्ति प्राप्त हई, वह दिन मानव-जाति के लिए महत्त्वपूर्ण रहा, इसमें कोई संशय नहीं। अब मानव अपने विचारों का संकलन कर सकता था, अपनी वाणी को स्थिरता दे सकता था और दूर अथवा समीप प्रदेशों तक अपनी आवाज पहुँचा सकता था। सिद्धान्त-वाक्यों के विस्मरण का लिपि-रचना के बाद कोई भय नहीं रहा; परन्तु कालान्तर में मौखिक तथा लिखित भाषा में परस्पर प्रतिष्ठा को लेकर
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/११७
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