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एक प्रेरक व्यक्तित्व : मुनिश्री विद्यानन्द स्वामी
अपने लड़कपन में मैंने कई दिगम्बर मुनि देखे थे, और उनके घिसे-पिटे धर्मोपदेशों को सुनकर मुझे बेहद बोरियत महसूस होती थी। उन प्रवचनों में न तो कोई जान होती थी, और न रोजमर्रा की जिन्दगी से कोई सीधा संबंध । वे शुष्क शब्दों में और उबा देने वाले तोतारटन्त अन्दाज में रूढ़ जैनाचार का व्याख्यान करते थे । ..
-डॉ. ज्योतीन्द्र जैन
सन् १९७२ के जुलाई में मैं वियेना विश्वविद्यालय से पीएच. डी. लेकर, तीन वर्ष के यूरुप प्रवास के बाद, एक प्रशिक्षित नृतत्त्व-वैज्ञानिक (एन्थ्रॉपोलॉजिस्ट) के रूप में भारत लौटा। मैं तब ज्यूरिख (स्विट्जरलैण्ड) के 'रीटबर्ग म्यूजियम' के एक शोध-वैज्ञानिक की हैसियत से भारत में जैन कला और संस्कृति पर प्रलेखन-कार्य (डाक्यूमेन्टेशन) करने आया था। इससे पूर्व मैं आदिम कबीलाई धर्मों के अध्ययन में तज्ञता प्राप्त कर चुका था । यही मेरे प्रशिक्षण का विषय रहा था । और इसमें मुझे बुनियादी दिलचस्पी थी।
यद्यपि एक दिगम्बर जैन परिवार में ही मेरा जन्म हुआ था, किन्तु बचपन में और उसके बाद भी जैनधर्म के किसी भी पहलू से मैं आकृष्ट न हो सका था। मगर उसके बाद एक आधारभूत तत्त्व में मुझे बेशक दिलचस्पी रही, और वह था ईश्वर का अस्वीकार, तथा व्यापक अर्थ में उसकी यह मान्यता कि व्यक्ति स्वयं ही अपने कर्मानुसार अपने सुख-दुःख के भोगों के लिए जिम्मेवार है । वही अपने भाग्य और जीवन-स्थिति का निर्णायक है, कोई अज्ञात विधाता या ईश्वर नहीं । इसके अतिरिक्त जैनधर्म में कभी कोई दिलचस्पी मेरी नहीं रही थी। मुझे जैनों से अरुचि थी, क्योंकि मुझे हमेशा यह अहसास होता रहा कि वे जैनाचार की कट्टर और रूढ़ शारीरिक साधनाओं को ही अधिक महत्त्व देते हैं और उसके आधारभूत तत्त्वज्ञान में अन्तर्निहित सूक्ष्म भावार्थों को भुलाये रहते हैं।
जैनधर्म के नाम पर अक्सर मैंने यही देखा था कि जैन लोग अपने उपवासों की संख्या में गर्व लेते हैं, और परिवार में कोई उपवास करे तो उसका जुलूस निकालने और उस उपलक्ष्य में उपहार बाँटने में ही उपवास की पूर्णाहुति मानी जाती है । मैंने ऐसे ही जैनों को देखा था जो बाह्य दिखावटी धार्मिक क्रियाओं में ही बेतरह उलझे थे, पर अपनी कषायों
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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