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ऐसे वल्लभ के हाथ से छटक कर अन्यत्र कहाँ शरण है ? मन्दिर में जो भगवान् प्रतिमा-योगासन में बैठे हैं, वही तो अभी मेरे सामने बोले । बरबस ही उस प्रेममति साधु के वीतराग घुटने पर, फिर मेरा माथा जा ढलका। मयूर-पींछी के कई मृदु-मन्द आघात मेरी चेतना को अगम्य ऊँचाइयों में उत्क्रान्त करते चले गए ।....
...और आज देख रहा हूँ, श्रीगुरु विद्यानन्द की वह मांत्रिक वाणी मेरी कलम पर साकार हो रही है। ऐसा लगता है, मानो चाँदनपुराधीश्वर के चरणों में बैठे हैं भगवद्पाद् गुरुदेव विद्यानन्द : और उनकी गोद में कवि युवराज की तरह रस-समाधि में निमज्जित लेटा है : और उसकी लेखनी पर भगवान् आपोआप उतरते चले आ रहे हैं ।
..."अगले दिन सवेरे बिदा लेने गया। गुरु-भगवान् बोले : 'एक वस्तु तुम्हें देनी है....।' मेरे मस्तक पर पीछी डालते हुए वे उठकर अन्दर गये। लाकर जो गोपन चिन्तामणि वस्तु उन्होंने मेरे हाथ पर रक्खी, उसको अनावरण करने का अधिकार मुझे नहीं है। बोले कि : 'नित्य इसका अभिषेक-आराधना करो, फिर देखो क्या होता है....!' ...जो हुआ है, सो तो आज देख ही रहा हूँ।
... श्रीगुरु के पाद-प्रान्त में जाने कितनी देर माथा ढाले रहा। फिर सर उठाकर घटनों के बल बैठा, तपस्वी के उस विश्व-विमोहन स्वरूप को निहारता रह गया। प्राण में जन्म-जन्मों के सारे संचित दुःख-कष्ट एक साथ उमड़ आये । शब्द असम्भव हो गया। आँखों में उजल रही आरती में ही सब कुछ आपोआप निवेदन हो गया। अकातर, असंलग्न, निरावेग, फिर भी नितान्त आत्म-वल्लभ-सी वह वीतराग दृष्टि अनिमेष मुझ पर लगी रही।
...'अद्वैत मिलन की उस अकथ घड़ी के साक्षी थे, केवल बाबूभाई पाटोदी।....
...."जयपुर जाने को तैयार खड़ी बस की ओर तेज़ी से लौट रहा था। पर पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। उसी महाभाव मूर्ति की परिक्रमा कर रहे थे, जिसे देशकाल में पीछे छोड़ आया था। पर क्या सचमुच पीछे छोड़ आया था, और क्या फिर लौटकर अन्यत्र जाना सम्भव हो सका था ?"
....जीवन में कई चेहरे हृदय पर अंकित हुए होंगे। कोई कामिनी-प्रिया मेरी साँसों तक पर छपकर रह गयी होगी। किसी आवाज़ की विदग्ध मोहिनी से मैं बरसों पागल रहा हूँगा । पर कोई मुख-छबि, कोई आवाज़, कोई मुस्कान मेरे आत्म-द्रव्य के हाथ ऐसी तद्रूप न हो सकी, कि जो स्मरण करते ही सांगोपांग मेरे समक्ष मूर्त हो जाये। केवल एक मुख-छबि, एक आवाज़, एक मुस्कान, ऐसी है, जो देश-काल के सारे व्यवधानों को भेदकर, चाहे जिस क्षण मेरे अन्तर में हटात्, बिजली की लौ की तरह जीवन्त और ज्वलन्त हो उठती है । "वही, जिसे पहली बार १९ अक्टूबर १९७२ के दिन, चाँदनपुर में देखा और सुना था ।"वह फिर अनन्त, अपनी हो कर रह गयी...!
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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