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पर तथाकथित जैनत्व की सीमाओं से मैं कभी का निष्क्रान्त हो चका । ... इस समाज की आज भी वही मनोवृत्ति है, आज भी वही रवैया है-शायद हालत बदतर है ।...'
'वह तो है, अब तुम क्या कहना चाहते हो ?'
'यही कि हिसाबी-किताबी द्रव्य का अन्न खाकर, महावीर लिखना मुझ ब्रह्मकर्मी के वश का नहीं है। मुझे इस मायाजाल से कृपया मुक्त ही रखें। केवल आपका आशीर्वाद चाहता हूँ कि अपने आत्मगत महावीर की रचना करने में सफल हो सकूँ । 'योगक्षेमवहाम्यहं श्री महावीर मेरा भार उठायेंगे ही ...।'
स्पष्ट देख सका, मेरा शब्द-शब्द मुनिश्री के हृदय के आर-पार गया है । मेरी आवाज़ के दर्द से उनका पोर-पोर अनुकम्पित हुआ है। फिर भी वे निश्चल हैं। अपलक एकटक मेरी ओर निहार रहे हैं । फिर निरुद्वेग शान्त स्वर में बोले :
___ 'नहीं, अब मेरे हाथ से छटक जाओ, यह सम्भव नहीं । सुनो वीरेन्द्र, मैं भी तुम्हारी ही तरह बालपन से ही विद्रोही रहा हूँ । और आज जो कुछ हूँ, वह उसी की चरम परिणति है। अभी कुछ बरस पहले मेरे साथ भी ऐसी नौबत आयी थी। कहा गया था, इस साधु की रोटी बन्द कर दो, इसे कपड़े पहना दो। यह पर धर्मों की मिथ्यादृष्टि शास्त्र-वाणी का व्याख्यान करता है । लेकिन मैं मैदान में ईंटा रहा, भागा नहीं अपनी आन पर अविचल रहा। आज देख ही रहे हो, कहाँ हूँ....?'
'आपकी और बात है, महाराज, आप गृह-त्यागी सन्यासी हैं, और आपके पास प्रत्यक्ष तपोबल है, जिसे कोई हरा नहीं सकता। मैं ठहरा परिवार-भारवाही गृहस्थ
और फिर भी स्वैराचारी कवि : कई मोर्चों पर एक साथ लड़ने को मजबूर । ऐसे में मेरे आन्तर तपो-संघर्ष और उन्मुक्त भावोन्मेष को समझने का कष्ट यहाँ कौन करेगा?'
"मैं करूंगा तुम्हारी प्रेमाकुल विद्रोह-मूर्ति के पीछे इस बार मैं खड़ा हूँ । यह क्या काफी नहीं होगा ?'
.."मैं आपा हार कर नतमाथ समर्पित हो रहा । समझ गया, यह 'गुरुः साक्षात् परब्रह्म' का अचूक आश्वासन, और अकुतोभय अभय-वचन है। मैंने कहा :
.."भगवन्, मेरे हृदय में जो महावीर इस घड़ी उठ रहे हैं, वे आज की असत्य, हिंसा, चोरी, परिग्रह और व्यभिचार की बुनियाद पर खड़ी आसुरी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह के दिगम्बर ज्वालामुखी की तरह प्रगट होंगे । अपने समय के पथभ्रष्ट ब्राह्मणत्व, क्षात्रत्व और वणिकत्व के विरुद्ध भी, वे इसी प्रकार प्रलयंकर शंकर की तरह उठे थे। ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज के संयुक्त अवतार, उस पुरुषोत्तम ने अपने काल की ससागरा पृथ्वी की धुरी हिला दी थी; और उसे वस्तु-सत्य की स्वाभाविक धर्मधरी पर पुनर्प्रतिष्ठित किया था। यही होगा मेरे महावीर का स्वरूप ।...'
__'मेरा महावीर भी वही है, और उसकी युगानुरूप जीवन्त मूर्ति तुम्हारे सिवाय आज कौन इस देश में गढ़ सकेगा? इसी कारण तो तुम्हें खोज रहा था। और लो, तुम स्वयम् ही आ गये।...'
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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