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मनुष्य किसी जीवन-दृष्टि या दर्शन से महान् नहीं बनता, महान् वह उस समय बनता है जब वह उनका अनुवर्तन करता है, उनके अनुकूल आचरण करता है । मुनिश्री के महान् व्यक्तित्व की यह विशेषता है कि अपनी जीवन-दृष्टि एवं दर्शन को वे आचरण के केन्वस पर उतार कर रख रहे हैं । जब से उन्होंने मुनि-पद की दीक्षा ली (२५ जुलाई १९६३ ) तब से वे निरन्तर तप और साधना में निरत हैं । " धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन, साहित्य का अन्वेषण और ऐतिहासिक तथ्यों की खोज उनके जीवन के अंग बन गये हैं ।" अपने व्यक्तित्व को पिघलाकर दूसरे के अन्दर उतारने वाले 'पार्श्वकीर्ति' असंख्य लोगों के हृदय - दीपकों को भव्यालोक प्रदान कर रहे हैं। उनकी अमृत वाणी यदि संत्रस्त, संपीड़ित मानवता के रिसते जख्मों पर, फाहा सदृश शीतलता प्रदान करती है, तो उपदेश उद्बोधन और जागरण की प्रेरणा प्रदान करते हैं । आज इस विशाल देश में जो महावीर - निर्वाण-शती पूर्ण निष्ठा के साथ मनायी जा रही है, उसके प्रेरक स्रोत मुनिश्री ही हैं । वह ऐसे साधु नहीं जो गली-गली डोलते मिल जाते हैं - गली-गली साधु नहीं रावण ही मिलेंगे; राम- सदृश साधु का मिलना ही दुष्कर है ।
एक धर्म, एक संस्कृति
धर्मनिष्ठ मुनिश्री में धार्मिक सहिष्णुता का प्राचुर्य है । धर्म को वे अत्यन्त विशाल, व्यापक और विशद मानते हैं; संकीर्ण नहीं । उन्हीं के शब्दों में-- " जो अशान्ति से रहना सिखाये, आपस में लड़ाये, एकदूसरे के विरुद्ध शस्त्र उठाये, वह धर्म कभी नहीं हो सकता । धर्म तो शान्ति, दया व प्रेम से रहना सिखाता है अकेला धर्म ही मनुष्य को आपदाओं से मुक्ति दिला सकता है ।" धार्मिक दृष्टि से उनके विचारों में औदार्य अत्यधिक है। उन्होंने जैनेतर धर्मों एवं मतों का भी अध्ययन, मनन, अन्वीक्षण किया है; लेकिन कहीं पक्षाग्रह या दुराग्रह देखने को नहीं मिलता। वे मानते हैं कि " अपने-अपने विश्वास के अनुसार सभी को अपने धर्म-ग्रन्थों से लाभ उठाना चाहिये और जो बातें जीवन को उन्नत बनाती हैं उनको अमल में लाना चाहिये ।” उनकी दृष्टि में धर्म केवल मनुष्य या जाति- विशेष का नहीं है, अपितु प्राणिमात्र के लिए है, सभी के कल्याण के लिए है । संसार में प्राणिमात्र को जीने का समानाधिकार है, अतः धर्म प्राणिमात्र के कल्याण-निमित्त ही होना चाहिये । जैसे जल सभी की पिपासा का प्रशमन कर नवजीवन और स्फूर्ति प्रदान करता है वैसे ही धर्म आत्मा को ऊर्ध्वगामी बनाता है, उसे उत्कृष्ट बनाता है। उन्होंने सकल संसार के प्राणियों के लिए एक धर्म और एक संस्कृति की सदिच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि 'एक आकाश की छत के नीचे रहने वाले, एक सूर्य और एक चन्द्रमा से आलोक प्राप्त करने वाले मनुष्यों का धर्म एक तो होगा ही, उनकी संस्कृति एक तो होगी ही; हाँ, धर्म और संस्कृति में देश-काल- परिस्थिति के कारण वैभिन्य आ सकता है। आज जिस 'वर्ल्ड ब्रदरहुड' और 'इन्टरनेशनल रिलीजन' की बात कही
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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