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________________ राष्ट्र - सन्त मुनिश्री और आधुनिक जीवनसंदर्भ कृषक हो या श्रमिक, हरिजन हो या ब्राह्मण, निर्धन हो या धनवान उनकी दृष्टि समान रूप से सभी पर पड़ती है; वे मानवतावादी रस- दृष्टि से सभी को अनुषिक्त करते हैं। डॉ. निजाम उद्दीन श्रमण-संस्कृति के शुभ्र दर्पण, दिगम्बर नरसिंह, वीतरागता, सात्विकता, सौम्यता, सहजता की प्रतिमा, स्नेह - विवेक से आप्यायित, परम ज्योतिर्मय तपःपूत शरीर, अधरों पर सहज मुस्कान, भव्य ललाट, नेत्रों में तैरती सम्यक्त्व - ज्योति, शैशव का अनुपम सारल्य, निर्द्वन्द्व मुख मण्डल, निर्मलता के आगार, परमतत्त्वज्ञानी, प्रबुद्धचेता, परम संवेदनशील, देशानुराग से अनुरंजित, तप- ज्ञान कला-साहित्य के पुंजीभूत, अनन्त प्रेरणाओं के अजस्र स्रोत, अहिंसा के आराधक, मानवता के प्रबल प्रेमी, जन-मानस को समान्दोलित करने वाले कुशल जन नेता, प्रजा परम्परा और सामासिक संस्कृति के जीवन्त प्रतीक मुनिश्री विद्यानंदजी सम्प्रदाय पुरुष न होकर एक राष्ट्र - सन्त और विश्व-पुरुष हैं । स्वतन्त्रचेता मुनिश्री जीवन के दृष्टा और सृष्टा दोनों हैं / ‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मानाम्' - मन-वचन-कर्म की एकसूत्रता महान्, स्वस्थ व्यक्तित्व का सृजन करती है । मुनिवर के महान् व्यक्तित्व में इसी प्रकार की एकसूत्रता विद्यमान है, उसमें गुरुत्वाकर्षण है - चुम्बक सदृश आकर्षण, लेकिन पूर्णत: निष्काम, अनीह, अनिकेत एवं अनुद्विग्न । मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only ७५ www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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