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जाती है उसका अनुरणन मुनिश्री की वाणी में श्रवणगोचर हो रहा है, उसका क्रियान्वित रूप मुनिश्री के आचरण में परिलक्षित होता है। नयी पीढ़ी और धर्म
नयी पीढ़ी का आह्वान करते हुए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि धर्म को पुस्तकों से नहीं; आचार, न्याय और नीति से जानना चाहिये। ठीक भी है, भला जब तक धर्म ग्रन्थों में बन्द रहेगा-उन्हीं तक सीमित रहेगा तब तक लोक-जीवन से स्वतः दूर हट जाएगा। धर्म का रूप तो सर्वजगत्-हितकर्ता और लोकोपकारक होता है। धर्मतत्त्व-गवेषकों ने क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप आदि को सहज धर्म मताया है, यही तो मानव-जाति का धर्म है-विश्वधर्म है। "वस्तु स्वभावो धर्म:” अर्थात् प्रत्येक वस्तु की निजता ही उसका धर्म है; जैसे--जल का शीतत्व, अग्नि का दाहकत्व, सागर का गंभीरत्व, आकाश का व्यापकत्व, पृथ्वी का सहिष्णुत्व । इसी प्रकार अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि का अनुपालन करना हमारा कर्तव्य है, यही हमारा धर्म है।
अहिंसा और मैत्री
आज चारों ओर वैर और शत्रुता के भयाविल मेघ गरज रहे हैं। कलह और अशान्ति की इस फज़ा में हमें अहिंसा और मित्रता को अंगीकार करना चाहिये। महर्षि पतंजलि कहते हैं-“अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्यागः-अर्थात् जहाँ अहिंसा है, वहाँ वैर-भाव का स्वतः त्याग हो जाता है। इसी प्रकार हमें आशा करनी चाहिये कि सर्वत्र मित्रता की प्राप्ति हो-“सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु”। मुनिश्री कहते हैं कि हम अपने नेत्रों में मैत्री-भाव का अंजन लगायें, तभी वैर को मिटाया जा सकता है। 'न हि वैरेण वैरः शम्यति"-वैर से वैर नहीं मिटता; मैत्री-भाव से ही संसार में युद्धोन्माद के काले बादल छंट सकते हैं। विश्वधर्म के लक्षणों का आरम्भ 'क्षमा' से होता है, हमें चाहिये कि उन्नत मनोबल, सामाजिक शिष्टता के आभूषण 'क्षमा' को विचार नहीं, आचार बनायें। .
भारतीयता के पोषक
मुनिश्री को इस बात का अधिक अनुताप है कि आज हममें भारतीयता या राष्ट्रीयता की भावना तिरोहित हो गयी है। जिस मुनिश्री ने, स्वाधीनता-आन्दोलन में जेल-यात्रा की, रात्रि में फिरंगी सरकार के विरुद्ध पोस्टर चिपकाये और भारत की शान 'तिरंगे' को अपने गाँव के निकटस्थ एनापुर में एक पेड़ पर फहराया, स्वतंत्रता का जीवन में वही स्थान माना है जो शरीर में प्राणों का है। शरीर प्राणहीन होकर शव-मात्र है, देश स्वतंत्रता-हीन होकर मुर्दा है। उन्होंने देश की सुरक्षा के लिए शस्त्र-बल को भी न्यायोचित तथा आवश्यक समझा है। सीमा
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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