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श्रोता - समूह एकाग्र चित्त से उनके सुलझे सुस्पष्ट विचारों को मनन करता रहता है और जब प्रवचन समाप्त होता है तो उसे लगता है जैसे किसी ने निद्रा भंग कर दी हो ।
मैंने उनके दर्जनों प्रवचन सुने हैं । मेरा अनुभव है कि मुनिश्री श्रोता समूह के मन की प्यास तलाशने में निपुण हैं । वे उसी विषय को लेते हैं जिसे सुनने को ही मानो जन-समुदाय एकत्रित हुआ हो । श्रोताओं का अधिकांश उन विचारों को ग्रहण करने में सक्षम होता है और उसे ऐसा अनुभव होता है मानो उस दिन की प्रवचन-सभा उनके लिए ही विशेष रूप से आयोजित की गयी हो । किसी धर्म, जाति और सम्प्रदाय के श्रोता हों, मुनिश्री तथा उनके मध्य एक अदृश्य निकटता स्वतः स्थापित होती जाती है और वक्ता तथा श्रोता के बीच एक कभी न टूटने वाला तारतम्य स्वयमेव बन जाता है ।
मनिश्री रामायण के अधिकृत प्रवक्ता है । उन्होंने राम तथा सीता के आदर्श - निष्ठ जीवन का अध्ययन करने के लिए अनेक रामायणों का सांगोपांग अध्ययनमन्थन किया है । अपने भाषण में वे प्राय: रामायण, गीता, कुरान तथा बाइबिल के श्रेष्ठ और अनुकरणीय अंशों का उद्धरण दिया करते हैं। मैंने अनेक वक्ताओं को दिगम्बर जैन मुनिश्री विद्यानन्द द्वारा रामायण तथा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन के उदाहरण देने पर आश्चर्य प्रगट करते देखा है और सुना है । उन्हें लगता है. कि मुनिश्री के भीतर कोई सर्वधर्मों का ज्ञाता बैठा है जो उन्हें जैनत्व के दायरे में रखते हुए भी प्राणिमात्र और परधर्म के सद्गुणों के विशाल घेरे तक प्रभावशील रखता है ।
दुर्भाग्य से गत दशाब्दियों में कतिपय साधु-सन्तों ने जैनधर्म की विशालता और उसके विस्तृत दायरे को कुछ लोगों तक ही सीमित करने का प्रयास किया है । मुनिश्री विद्यानन्दजी ने उस संकुचित घेरे को तोड़ने का साहसपूर्ण प्रयास किया है और उन्हें इसमें भारी सफलता भी मिली है । मुनिश्री के माध्यम से प्राणि - मात्र के लिए कल्याणकारी सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और समता का उपदेश देने वाला जैनधर्म फिर अपने पूर्ववैभव को प्राप्त कर रहा है, मुनिश्री फिर से उसे कोटि-कोटि विश्ववासियों का प्रिय धर्म बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हैं । यह सारा आन्दोलन वे भाषणों, प्रवचनों, सत्साहित्य की संरचना और विलुप्त दर्शन को प्रकाशित करके कर रहे हैं, जो अपने आप में एक विशाल अनुष्ठान है । जैनजगत् में होने वाली कोई हलचल आज मुनिश्री विद्यानन्दजी के प्रभावशाली व्यक्ति के स्पर्श से अछूती नहीं है। वे एक स्थान पर बैठे रहकर भी सर्वव्यापी बन गये हैं ।
आज जबकि भौतिक सुविधाएँ, सांसारिक कष्ट, संस्कृतिविहीन फैशन तथा छलकपट से मुद्रा-अर्जन के कारण हर प्राणी विनाश की ओर यंत्रवत् बढ़ रहा है, तब इस
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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