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________________ मुनि विद्यानन्द एक सहज पारदर्शी व्यक्तित्व 'जो मानव को मानव से जोड़े और उसे निकट लाये, वह धर्म है और जो मानवों में फूट डाले, उनमें विभेद उत्पन्न करे, कटुता का सृजन करे, एक दूसरे की निंदा के लिए उकसाये, वह चाहे कुछ भी हो, मैं उसे धर्म नहीं मान सकता ।' गजानन डेरोलिया परम दिगम्बर, प्रखर वक्ता, वीतरागी एवं विद्वत्श्रेष्ठि मुनि श्री विद्यानन्दजी के प्रथम दर्शन मुझे सन् १९६५ में उस समय करने का सुअवसर मिला जब वे चातुर्मास के लिए यहाँ पधारे । मुनिव्रत लिये उन्हें उस समय बहुत अधिक समय नहीं हुआ था, किन्तु उनकी वक्तृत्व शक्ति, मानव मात्र के लिए सुलझे हुए कल्याणकारी विचारों और राहज-सरल भाषण - शैली का लोहा भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. सम्पूर्णानन्द तथा जैनदर्शन के उद्भट ज्ञाता पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ जैसे व्यक्तियों ने भी मान लिया था। मुनि के रूप में जयपुर संपन्न प्रथम चातुर्मास में ही मुनिश्री ने वहाँ के जन-जन का मन जीत लिया था । वैसे प्रकृति और विचारों से मैं कोई बहुत धार्मिक लोगों में नहीं आता और यकायक किसी त्यागी वृत्ति के लिए नमन करने को मेरा मन-मानस भी तैयार नहीं हो पाता है, किन्तु किसी अज्ञात शक्ति ने मुझे मुनिश्री के व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक कर दिया था । मुझ जैसे हजारों-लाखों उनके भक्त बनते गये; किन्तु उनके निश्चल स्नेह और आशीर्वाद सदा मुझे मिलते रहे और उससे मैं गर्व का अनुभव करता रहा। उनके विचारों को निकट से सुनने-समझने का मुझे अवसर मिला । उनके श्रीमहावीरजी तीर्थ पर हुए प्रथम वर्षायोग में इस सम्पर्क में वृद्धि हुई । धर्म, राजनीति, सदाचार, लोकसत्ता, तात्कालिक विषय, कुछ भी तो ऐसा नहीं था जिस पर मुनिश्री का अध्ययन अधूरा हो और जिस पर वे धारा प्रवाह विचार व्यक्त न कर सकते हों। पूर्ण अनुशासित शान्तिमय वातावरण की विशाल सभाओं में धारा-प्रवाह् विचार प्रकट करते जाना मुनिश्री विद्यानन्दजी की अपनी अलौकिक विशिष्टता है । मुनिश्री विद्यानन्द विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only ७१ www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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