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________________ ज्ञान की वास्तविकता यह है कि वह हमें केवल लिखे हुए कांगजों को ठीक से पढ़ने के योग्य ही न बनाये, प्रत्युत उन सारे अक्षरों को अक्षरशः पढ़ कर, सम्यक् अर्थ समझ कर उन घिसे-पिटे अक्षरों को मिटा कर स्पष्ट अक्षर लिखने की योग्यता प्रदान करे । संसार में लीक पीटने वाले और अक्षर रटने वाले तो अनगिनत हैं, पर जीवन जीने वाले गतानुगतिकता को लाँघ कर विश्व को नया अर्थ-बोध और शास्त्रों को नया वेष्टन प्रदान करने वाले विरले ही हैं। अनेकता में एकता मुनिश्री के सम्बन्ध में सबके विचार और दष्टिकोण भिन्न हो सकते हैं, किन्तु उनका व्यक्तित्व असाधारण है, वे विरले व्यक्तियों में एक अकेले हैं, इसे स्वीकार करना ही पड़ता है। इसलिए व्यक्ति के सामान्य व्यक्तित्व से लेकर लोकधर्म और विश्वधर्म की समस्त परिभाषाएँ उनके व्यक्तित्व में सार्थक हैं। वे स्वयं विश्वधर्म के प्रतीक हैं। कई लोग विश्वधर्म के नाम से अपनी अरुचि प्रदर्शित करने लगते हैं। उनकी समझ में यह नहीं आता है कि विश्व का भी कोई एक धर्म है, किन्तु धर्म कहाँ नहीं है ? जहाँ जीवन भी नहीं है, वहाँ भी धर्म है, फिर जहाँ जीवन है वहाँ धर्म कैसे नहीं हो सकता? मनुष्य में यदि भेद-बुद्धि है तो वह धर्म को समझता है, जानता है और अच्छे-बुरे का अन्तर अवश्य रखता है। ऐसा हो नहीं सकता कि कोई मनुष्य अच्छे-बुरे का अन्तर न समझता हो। हमारी अच्छे-बुरे की परिभाषाएँ परम्परागत होती हैं; देश, काल और समाज-सापेक्ष होती है। उन्हें महामुनि-जैसे मानव ही जन-सामान्य को ठीक से समझाने का कार्य करते हैं। गंगा बहाना हर किसी का काम नहीं है, उसे तो भगीरथ-जैसे योगी, तपस्वी ही बहा सकते हैं। योगेश्वर मुनिश्री जहाँ आत्म-साधना में योगेश्वर की भूमिका में हैं, वहीं मुक्ति के सिद्धहस्त चित्रकार भी हैं; परन्तु मानवता का चित्रकार जन-सामान्य के बीच सब प्रकार के जाति, संप्रदाय, मत-मतान्तरों के बन्धनों से उठ कर, सारे दायरे तोड़ कर शुद्ध मनुष्य का लक्ष्य लेकर चल रहा है; क्योंकि आज का योग हठ-साधनाओं में नहीं, व्यक्ति-व्यक्ति में जो अविश्वास, घृणा और उच्च-नीचता का सांप्रदायिक विष व्याप्त हो गया है, उससे इन्सान को हटा कर प्रेम और विश्वास से उनका संयोग कराना है। योग का अर्थ जोड़ है, परन्तु आज का आदमी टूटता जा रहा है। समाज बिखर रहा है। सारी मान्यताएँ झूठी पड़ती जा रही हैं। विज्ञान की चकाचौंध में अब धार्मिक मान्यताओं में रोशनी नजर नहीं आ रही है। उन सबको रोशनी देने वाला क्रान्ति का कोई अमर हस्ताक्षर आज हमारे बीच यदि कोई है तो हमें गर्वपूर्वक कहना पड़ता है कि वह तेजस्वी मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज ही हैं । 00 ७० तीर्थकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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