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क्रान्ति के अमर हस्ताक्षर
संसार में लीक पीटने वाले और अक्षर रटने वाले तो अनगिनत हैं, पर जीवन जीने वाले गतानुगतिकता को लांघकर विश्व को नया अर्थबोध और शास्त्रों को नया वेष्टन प्रदान करने वाले बिरले ही हैं।
- डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री जीवन की अनन्त क्षणिकाएँ अनन्त रेखाओं में न जाने किन इन्द्रधनुषी रंगों में चित्र-विचित्र होती रहती हैं। उनमें केवल चित्र ही नहीं होते हैं, अर्थ और भाव भी होते हैं। जैसे कल्पना को साकार करने के लिए शब्द रेखाओं का आकार प्रदान करते हैं, वैसे ही हमारे अव्यक्त जीवन को भी कोई-न-कोई रेखा तथा आकार देने में निमित्त या सहायक होता है। कई बार हमारे भाव तो होते हैं, पर उन्हें प्रकट करने में जब हमें कोई निमित्त नहीं मिलता, तब वे अन्तर्गढ़ ही रह जाते हैं; रहस्य का प्रकाशन नहीं हो पाता। कल्पना तो है, पर उसे साकार करने वाले यदि उचित शब्द न हों तो वह साहित्य नहीं बन पाती, किसी अन्तरंग की चंचल तरंग बन कर रह जाती है। हमारे जीवन में मुनिश्री विद्यानन्दजी ऐसे ही शब्द बन कर आये, जिनके प्रत्येक अक्षर ने हमारे भावों को ही मानो खोल कर रख दिया। वस्तुतः व्यक्तित्व का अभिनिवेश शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकता। वह न तो वेश में है, न सरल स्मित मुस्कराहट में और न ही चमकते हुए मुखमण्डल तथा विशाल भाल में है, वरन् उन सब के भीतर जो उनकी अनासक्त अन्तर्दृष्टि और अध्ययन-मनन की सतत कामना एवं साधना है, वही उनका व्यक्तित्व है। संयमस्वाध्याय की साधना में वे हिमालय के समान अडिग और सुस्थिर हैं। गंगा के समान पवित्र उनका मन सतत ज्ञानोपयोग में रमा रहता है। व्यक्तित्व एक : दृष्टियाँ अनेक
वस्तु एक होने पर भी हम उसे कई रूपों में प्रकट करते हैं। अन्न प्राण है, जैसा खाओ अन्न वैसा होता मन, अन्न ही जीवन है, यह सारा संसार अन्नमय है, अन्न व्यक्ति है---इन विभिन्न वाक्यों से एक अन्न के सम्बन्ध में विभिन्न भाव-धाराएँ बहती हुई लक्षित होती हैं। इसी प्रकार से व्यक्ति के सम्बन्ध में भी हमारी विभिन्न धारणाएँ होती हैं। मुनिश्री किसी को इसलिए अच्छे लगते हैं कि वे इस युग के हैं और इसलिए युग की भाषा में बोलते हैं, किसी दूसरे को वे इसलिए भले हैं कि वे बोलते ही नहीं हैं, स्वयं धर्म की भाषा हैं। दुनिया में शास्त्रज्ञों की कमी नहीं है, पर कोरा ज्ञान, या शास्त्र को लिये फिरने से वह कभी-कभी शस्त्र भी बन जाता है। इसलिए हमें केवल शास्त्रज्ञ नहीं, तत्त्वज्ञ नहीं, उनका भावार्थ जानने वाला चाहिये, जो कि मुनिराज के विराट् व्यक्तित्व में समाया हुआ है। मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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