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________________ बात की बहुत आवश्यकता है कि उन्हें कोई सन्मार्ग बताये। मुनिश्री विद्यानन्दजी इस डूबती नाव के लिए पतवार बन गये हैं। वर्तमान में वर्द्धमान की उपलब्धियों, उनके प्रेरणामय चरित्र और जीवन को वे अन्धकार के गर्त की ओर अग्रसर मानव तक पहुँचाने के लिए उपग्रह जैसे प्रभावी बन गये हैं। संगीत में व्यक्ति के चित्त को एकाग्रता प्रदान करने की अलौकिक शक्ति है। मुनिश्री शालीन संगीत के प्रशंसक हैं और उसके विकास में रुचि भी रखते हैं। जैन रिकार्डों की संरचना में उनके योगदान को भावी पीढ़ियां सदियों तक विस्मृत नहीं कर पायेंगी। प्राचीन तथा अर्वाचीन कवियों, गायकों की विलुप्त रचनाओं को उन्होंने स्वर और संगीत दिलाया है और एक कोने में अछूत-सी पड़ी ये सारगभित रचनाएँ अब लोगों के हृदय तक पहुँच करने वाली सिद्ध हो रही हैं। सिनेमा के दो अर्थ वाले भोंडे गीतों का स्थान अब सुसंस्कृति और सुरुचिसंपन्न परिवारों में जैन रिकार्डो ने ले लिया है। __ मुनिश्री की वक्तृत्व-शैली तथा भाषण-क्रिया के सम्बन्ध में कुछ उद्धरण देना अनुपयुक्त नहीं होगा। इनसे सहज ही इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि वे अपनी बात को कितनी सरलता से सीधे श्रोता के हृदय तक पहुँचा देने में सिद्धहस्त हैं। __ आधुनिकता के नाम पर संस्कृति-हीन जीवन-यापन के पीछे दीवानी पीढ़ी को मनिश्री ने सीता तथा उनके देवर लक्ष्मण के मध्य हुई वार्ता बहुत ही सरल ढंग से इन शब्दों में कही है : ___लक्ष्मण इसलिए उदास थे कि जनक-दुलारी सीता सुकुमारी के नीचे बिछाने को जंगल में कोई नरम बिछौना नहीं था। सीताजी ने लक्ष्मण के दुःख को कम करने के लिए कहा कि मैं तो आप लोगों से भी अधिक लज्जित और दुःखी इसलिए हूँ कि यहाँ समतल भूमि होने के कारण मुझे पति और देवर के बराबर शैया पर सोना पड़ रहा है और मैं उन्हें कुछ अंगुल ऊँचा आसन भी देने में समर्थ नहीं हो पा रही हूँ। इस आख्यान का तात्पर्य यही था कि आज कितनी सन्नारियाँ हैं जो इस प्रकार के सम्मान और मर्यादा का पालन करती हैं। भावार्थ --पत्नी को पति तथा देवर के प्रति समुचित आदर और सम्मान रखना चाहिये। पाप और पुण्य की बहुत ही सीधी परिभाषा करते हुए मुनिश्री प्रायः एक उद्धरण दिया करते हैं; 'जिस कार्य से किसी व्यक्ति के हृदय को चोट पहुंचे, उसे कष्ट हो, वह पाप है और जिस कार्य से किसी को सुख, आनन्द अथवा राहत का अनुभव हो वह पुण्य है।' मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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