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________________ शुद्ध नग्नता के स्वरूप को, जहाँ न अब तक जाना, वहाँ तुम्हारे माध्यम से इसका महत्त्व पहिचाना। पग-पग पर बढ़ता जाता था, जो विरोध मनमाना, किन्तु आज इस नग्न सत्य को, हर विरोध ने माना। हृदयंगम हो जाने वाले, प्रस्तुत किये प्रमाण । धर्म सन्त, युगपुरुष, पूज्य मुनि विद्यानन्द महान् । जहाँ जैन का नाम श्रवण कर मठाधीश घबराये, अपनी प्रतिभा द्वारा तुमने उनसे आदर पाये। मानस को जागृत कर, ऐसे केन्द्र-बिन्दु पर लाये, जिसमें एक घाट जल पीते, अपने और पराये। तुममें गर्भित ग्रन्थ, बाइबिल, गीता, वेद, पुराण । धर्म संत, युगपुरुष, पूज्य मुनि विद्यानन्द महान। सब के मन को मोह रहा, आत्मिक उपदेश तुम्हारा जहाँ-जहाँ पग धरे वहाँ,बह चली धर्म की धारा। मानवता को भूल रहा था, वैज्ञानिक जग सारा, मानव की डिगती आस्था को, तुमने दिया सहारा। सीधा मार्ग पा गया फिर भूला-भटका श्रद्धान ! धर्म सन्त, युगपुरुष, पूज्य मुनि विद्यानन्द महान् ! जनता कहाँ समझ पाती है, उलझन की परिभाषा, इसीलिए जन-साधारण की क्षुब्ध रही जिज्ञासा। इसके फलस्वरूप धर्मों से बढ़ने लगी निराशा, मिटी तुम्हारे प्रवचन से जनता की तृषित पिपासा। पाया है मुमुक्षुओं ने दुर्लभ आत्मिक वरदान । धर्म गुरु, युगपुरुष, पूज्य मुनि विद्यानन्द महान् । धर्म-विमुख पीढ़ी के मन में, उमड़ रही शंकाएँ, उसको आकर्षित करती, मंगल ग्रह की उल्काएँ। किंवदंतियाँ लगती उसको पौराणिक चर्चाएँ, इसको रुचती हैं केवल वैज्ञानिक परिभाषाएँ । मिला तुम्हारे समाधान में व्यवहारिक व्यवधान । धर्म सन्त, युगपुरुष, पूज्य मुनि विद्यानन्द महान् । तीर्थकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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