________________
वाग्मी
मनोज्ञ निर्ग्रन्थ
'वाग्मी' का विरुद वहुत कम वक्ताओं को प्राप्त होता है; सौभाग्य की बात है कि वह आज मुनिश्री को उपलब्ध है ।
- डा. दरबारीलाल कोठिया
महातपस्वी गृद्धपिच्छाचार्य ने आत्मा को शुद्ध एवं अकलंक बनाने के लिए तप के महत्त्व और उसकी आवश्यकता पर बल देते हुए बारह तपों का विशेष तथा विस्तृत निरूपण किया है । इन तपों में एक वैयावृत्त्य तप है, जो इस प्रकार के निर्ग्रन्थों की परिचर्या द्वारा सम्पाद्य है । दस निर्ग्रन्थों में जहाँ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ और साधु इन नौ प्रकार के मुनियों की वैयावृत्त्य का उल्लेख है, वहाँ मनोज्ञ मुनियों का भी निर्देश है । तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकारों ने इन दसों प्रकार के निर्ग्रन्थों की उनके गुण- विशेष की दृष्टि से, निर्ग्रन्थत्व समान होते हुए भी, पारस्परिक भेदसूचक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं । इनमें 'मनोज्ञ' निर्ग्रन्थ की परिभाषा निम्न प्रकार दी गयी है
'——
मनोज्ञोऽभिरूपः । १२ । अभिरूपो मनोज्ञ इत्यभिधीयते । सम्मतो वा लोकस्य विद्वत्ता वक्तृत्व- महाकुलत्वादिभिः । १३ ।
विद्वान् वाग्मी महाकुलीन इति यो लोकस्य सम्मतः स मनोज्ञः, तस्य ग्रहणं प्रवचनस्य लोके गौरवोत्पादनहेतुत्वात् ।
मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
४७
www.jainelibrary.org