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________________ तत्त्वार्थवात्तिक व तत्त्वार्थवात्तिक-भाष्यकार अकलंक देव 'मनोज्ञ' निर्ग्रन्थ की व्याख्या देते हुए कहते हैं कि जो अभिरूप है वह मनोज्ञ है, अथवा जो विद्वानविविध विषयों का ज्ञाता, वाग्मी-यशस्वी वक्ता और महाकुलीन आदि रूप से लोक में मान्यता प्राप्त है उसे मनोज्ञ कहा जाता है, क्योंकि उससे शासन की प्रभावना और गौरव-वृद्धि होती है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने भी तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक व भाष्य में अकलंकदेव द्वारा अभिहित 'मनोज्ञ' निर्ग्रन्थ की परिभाषा को दोहराकर उसका समर्थन किया है। मुनि विद्यानन्दजी निश्चय ही वर्तमान काल के मनोज्ञ निर्ग्रन्थ हैं। वे विविध विषयों के ज्ञाता हैं, यशस्वी वक्ता हैं, महाकुलीन हैं और सुयोग्य लेखक-ग्रन्थकार हैं। जिन-शासन की उनके द्वारा जो आश्चर्यजनक प्रभावना एवं गौरव-वृद्धि हो रही है वह सर्व-विश्रुत है। उनकी व्याख्यान-सभा में सैकड़ों-हजारों नहीं, लाखों श्रोता उपस्थित होते और उनके प्रवचन को शान्तिपूर्वक सुनते हैं। उनका ऐसा प्रभावक भाषण होता है कि जैन-अजैन, भक्त-अभक्त सभी मुग्ध एवं चित्रलिखित की भाँति उनके भाषण को सुनते तथा पुनःपुनः सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं। उनका प्रवचन हित, मित और तथ्य की सीमाओं से कभी बाहर नहीं जाता। तथ्य को वे बड़ी निर्भीकता और शालीनता से प्रस्तुत करते हैं। इन्दौर, दिल्ली, मेरट आदि की उनकी व्याख्यानसभाओं को जिन्होंने देखा-सुना है वे जानते हैं कि उनका प्रवचन लाखों श्रोताओं पर जादू जैसा प्रभाव डालता है। ऐसे ही प्रवक्ता को 'वाग्मी' कहा गया है। आचार्य जिनसेन ने युग-प्रवर्तक आचार्य समन्तभद्र को उनकी अन्य विशेषताओं के साथ 'वाग्मी' विशेषता का भी सश्रद्ध उल्लेख किया है। 'वाग्मी' का विरुद बहुत कम वक्ताओं को प्राप्त होता है। सौभाग्य की बात है कि वह विरुद आज मुनिश्री को उपलब्ध है। मुनिजी अध्यात्मशास्त्र के मर्मज्ञ तो हैं ही, भूगोल, इतिहास, संगीत, चित्रकला आदि लोक-शास्त्र के विविध विषयों के भी विशेषज्ञ हैं। जब मुनिजी क्षुल्लक थे और पार्श्व कीर्ति उनका सुभग नाम था, तब आपने 'सम्राट सिकन्दर और कल्याण मुनि' नामक जो ऐतिहासिक पुस्तक लिखी थी और जिसका सब ओर से स्वागत हुआ था, उससे स्पष्ट है कि मुनिश्री भूगोल और इतिहास में रुचि ही नहीं रखते, वे उनके वेत्ता भी हैं। संगीत कला के आप पण्डित है, यह इसीसे विदित है कि उन्होंने इस विस्मृत और उच्च कोटि की कला को 'श्रमण-भजन-प्रचारक संघ' जैसी विशिष्ट संस्था की स्थापना द्वारा सप्राण ही नहीं किया, अपितु उसके द्वारा इस कला के ज्ञाता और उस पर कार्य करने वाले विद्वानों को पुरस्कृत एवं सम्मानित भी कराया है। भगवान महावीर की २५०० वीं निर्वाण-शती अगले वर्ष मनायी जाने वाली है। इस अवसर पर विभिन्न योजनाओं को आपके चिन्तन ने जन्म दिया है भगवान ४८ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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