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________________ वे प्रचारक नहीं हैं, साम्प्रदायिक नहीं हैं और सच कहूँ, वे राष्ट्रीय भी नहीं हैं, वे तो मानवता के मार्ग-साधक हैं । कहूँ, विश्व-धर्म के अन्वेषक हैं; उस विश्व-धर्म के, जो मानव को युद्ध के त्रास से त्राण दे सके। इसके लिए उनके चिन्तन का मध्यविन्दु अहिंसा है; अहिंसा यानी आचरण की शुद्धता, सहिष्णता यानी सम्यक चारित्र। वे विश्वात्मा मानव हैं दिगम्बर हैं, उनका जीवन-क्षेत्र जैन समाज है, और कर्म-क्षेत्र भारत है। वे धर्म के साथ देश की चर्चा करते हैं और देश को वैचारिक रूप में विश्व से जोड़ते हैं। उनका उद्घोष है-विश्वधर्म की जय हो । उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है, युक्तियुक्त है, उनका जीवन परम्परा का प्रतीक है, उनका चिन्तन अन्धश्रद्धा के अन्धकार में प्रदीप है। उनकी वाणी अर्थगर्भ होती है, फिर भी ज्ञान की जटिलता से दूर, अनुभव की सरलता से भरपूर । एक दिन मैं-वे बातें कर रहे थे । मैंने कहा-"मैं सिद्धि से साधना को अधिक महत्व देता रहा हूँ, क्योंकि साधना ही मानव की सीमा है, सिद्धि तो फल है, जो उसके हाथ नहीं।" बोले-“लक्ष्य से कर्तव्य की दिशा बनती है।" मैं विमग्ध हो उन्हें देखता रहा । ठीक ही है साधना की गति सिद्धि-अभिमुखी ही तो होगी। रात में भोजन न करने को जैन लोग बड़ा व्रत मानते हैं, पर मुनिजी की दृष्टि में इस महत्त्व का आधार स्वास्थ्य ही है।। एक दिन राम पर बोले, तो अतीत की नयी व्याख्या की चाँदनी ही छिटक गयी, रामायणों की प्रदर्शनी हो गयी, रामायण का युग-संस्करण ही तैयार हो गया। 0 शबरी ने झठे बेर राम को नहीं दिये थे। उसने बेर खा-खा कर राम के लिए उत्तम वृक्षों से मीठे बेर चने थे; जैसे हम टोकरे में से एक आम खाकर आम खरीदते हैं कि हाँ, इस वृक्ष के आम मीठे हैं । 0 हनुमान पवन के पुत्र नहीं थे, 'पवन-सुत' नाम का अर्थ है वे पवनंजय के पुत्र थे, उनका सूर्यपुत्र नाम उनके मामा के कारण पड़ा। O हनुमान बंदर नहीं थे। उन्होंने नगर में भिक्ष का रूप धारण कर भ्रमण किया था और बाद में बंदर का रूप ग्रहण किया था। वे वेश बदलने में प्रवीण थे। 0 हनुमान पहाड़ उठा कर नहीं लाये थे, जड़ी-बूटियों का ढेर उठा लाये थे। बात मुहावरे की है-'अरे तू तो पहाड़ ही उठा लाया !' मतलब है ढेरों सामान उठाना । O रावण के दस सिर नहीं थे। उसके कण्ठे में दस रत्न थे। उनमें उसका सिर चमकता देख, उसे किसी ने लाड़ में दशानन कहा । हमारी भाषा में वैसा दृश्य जैसा मुगले आजम फिल्म में शीश महल का था। और पूर्वाग्रहों से मन की, विचार की, चिन्तन की मक्ति का चमत्कार ही सामने आ गया, जब उन्होंने कहा--"रावण भी महान् था कि उसने नाक काटने के बदले नाक नहीं काटी।" मनि विद्यानन्द एक मुक्ति-साधक, एक मुक्त साधक, एक समन्वयी मानवात्मा, यानी आध्यात्म के साथ कलाकार । कलाकार; जिसके हर कर्म में व्यवस्था, हर व्यवहार में व्यवस्था; जिसके पास कुछ नहीं, पर सब कुछ; जो किसी का नहीं, पर सबका; जिसका कोई नहीं, पर जिसके सब अपने; संक्षेप में जीवन के सौंदर्य-बोध और शक्ति-बोध से अनुप्राणित युग-सन्त । od मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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