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________________ अपने ही देश के एक सज्जन याद आ गये, जिन्होंने एक दर्जन से अधिक विषयों में एम. ए. किया है । मैं जब जवान था, तब से पत्रों में समाचार पढ़ता रहा हूँ कि उन्होंने इस वर्ष इस विषय में एम. ए. पास किया है और अब वे इतने विषयों में एम. ए. हो गये। पढ़ते-पढ़ते मेरी उम्र ढलान पर आ गयी। आरम्भ में तो एक-दो बार उनके अध्यवसाय में आदर हुआ, पर बाद में लगा कि यह एक झक है । पढ़ना, पढ़ना, पढ़ना......यह कोई कृतार्थता नहीं है जीवन की। दूसरे शब्दों में, यह एक बौद्धिक जड़ता भी है। मेरे मन का प्रश्न था-क्या मुनि जी के लिए पढ़ना भी एक हॉबी है ? निकटता में मैंने देखा, परखा कि उनके अध्ययन का एक गहरा लक्ष्य है। वे अपने अध्ययन में पुस्तक ही नहीं पढ़ते, उन गाँठों को खोलते हैं, जिनसे जन-मानस उलझा हुआ है । वे इस उलझन को सुलझाते हैं, स्पष्टता पाकर स्पष्टता देते हैं । क्या इतना ही ? नहीं, इससे भी आगे हम कभी-कभी अपने सब कपड़े निकाल कर सामने रखते हैं । फिर उनका सावधानी से वर्गीकरण करते हैं । अच्छे कपड़ों की साफ तह करके उन्हें एक तरफ लगाते हैं जिन्हें अच्छे समय पर पहनेंगे, नम्बर दो के कपड़ों को धुला कर घरेलू उपयोग के लिए एक तरफ करते हैं और कुछ को एक तरफ रखते हैं कि ये अब हमारी रुचि के, उपयोग के योग्य नहीं रहे । मुनिजी भी अतीत के उत्तम, शाश्वत, सदा उपयोगी विचारों को छाँट लेते हैं, कुछ जो मैले हो गये हैं, उन्हें झाड़-पोंछते हैं और कुछ जो सड़-गल गये हैं, उन्हें हटा देते हैं । यह सब यही नहीं है, यह है अतीत को वर्तमान के साथ जोड़ना ताकि वह उज्ज्वल भविष्य का पोषक बन सके, वर्तमान को अस्वस्थ करने वाला न रहे । महापुरुष नयी बात नहीं कहते, वे पुराने की नयी व्याख्या करते हैं । मुनि विद्यानन्दजी का अध्ययन भी अतीत के विचारों की नयी व्याख्या की खोज है। क्या इस खोज का उद्देश्य जैनधर्म के प्रति उनकी कट्टरता को पोषण देता है । दूसरे शब्दों में, क्या उनका जीवन-कर्म साम्प्रदायिक है ? और भी साफ-साथ कहूँ क्या वे प्रचारक-श्रेणी के मनुष्य है ? उनके साथ गहरी एकता साध कर मैंने इन प्रश्नों पर अध्ययन-विवेचन किया है और जाना है कि वे जन्मजात जैन नहीं हैं। उनका जन्म वैष्णव ब्राह्मण वंश में हुआ था, जैनधर्म उन्होंने जानबूझ कर अपनाया है; यह उनके जीवन की क्रान्ति है, जो व्यक्तित्व को जड़मूल से बदलती है । इस क्रान्ति से पहले उनका मानस राज्य-क्रान्ति से ओतप्रोत था। वे इधर न आते तो उधर जाते । १९४२ में उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट निकला था। उसे पुलिस वाले के हाथ से छीन कर फाड़ फेंक कर वे भीड़ में गायब हो गये थे और थानेदार इस किशोर की चतुर चपलता को देखता ही रह गया था। ४० तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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