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________________ एक-एक को पहचान लेते हैं । एक दिन मैं जरा देर से गया और अपने नागरिक संस्कार के अनुसार सबसे पीछे बैठ गया। मेरे और उनके बीच में दूरी भी काफी थी और मानवमुण्डों की कमी न थी, पर उनके आसन पर आने के थोड़ी देर बाद ही एक सज्जन ने आकर कहा-“महाराज आपको उधर बुला रहे हैं।" मैं चकित रह गया । __एक दिन आकर बैठते ही व्यवस्थापक से बोले-"घड़ी रखते ही हो यहाँ, उसे देखते नहीं?" घड़ी बन्द थी । वे समय का पूरा ध्यान रखते हैं। प्रवचन आरंभ करने से पहले तीन बार ओम् का उच्चारण करते हैं, जैसे स्वयं भी ध्यान को केन्द्रित करते हों और श्रोताओं के ध्यान को भी । मैंने बहुतों से ओम् का नाद सुना है, पर ऐसा कहीं नहीं, कभी नहीं-सचमुच एक बार तो मनुष्य बाहर से भीतर सिमट जाता है । अपने मंच के वे प्रवक्ता भी होते हैं और अध्यक्ष भी; जरा भी अव्यवस्था उनकी सभा में नहीं हो सकती। वे इस अर्थ में कठोर व्यवस्थापक हैं कि जरा भी अव्यवस्था नहीं सहते, पर उनका यह असहन सहन से भी अधिक मधुर होता है । बीच-बीच में वे श्रोताओं को हँसाते भी खूब हैं, जैसे-चतुर माता रोगी बालक को दवा खा लेने के बाद बताशे देती है। उनके मंच पर आने के और प्रवचन आरंभ करने के बीच में कुछ समय हो, तो उसमें भी वे पढ़ते रहते हैं और पढ़ते-पढ़ते भी ‘मेरी-भावना' का पाठ आरंभ हो जाए, तो वे पुस्तक भी पढ़ते रहते हैं और मेरी भावना के पाठ में बोलते भी रहते हैं-मधुर और तल्लीन स्वर । प्रवचन के अन्त में भी भजन गाते हैं, गवाते हैं, जैसे वे सबको जीवन में साथ लिये चल रहे हों। ठीक भी है-आत्म मंगल में लोकमंगल ही तो उनकी साधना है। प्रवचन के बाद श्रोता शान्त स्फूर्ति लेकर लौटते हैं। ईसाई शिष्टाचार के अनुसार धर्मगुरु पोप के लिए नागरिकों के अभिवादन का उत्तर देना आवश्यक नहीं है, पर पोप तृतीय सबके अभिवादन का उत्तर देते थे। किसी ने उनसे कहा कि आप ऐसा क्यों करते हैं ? उनका उत्तर था-"अभी मुझे पोप बने इतने अधिक दिन नहीं हुए कि मैं आदमी ही न रहूँ !” मुनि विद्यानन्द जी दिगम्बरता तक पहुँचने के बाद भी आदमी हैं। वे सबके अभिवादन को कभी अभय-मुद्रा से और कभी मुस्कान से अपनी हार्दिक स्वीकृति देते हैं; संक्षेप में मानव में उनकी आस्था है और असाधारणता से साधारणता में उतर आना, उनकी सहजता है। वे विशिष्ट हैं, वे शिष्ट हैं और यहीं वे सबको इष्ट हैं। उनका अध्ययन उनके प्रवचनों से सिद्ध है कि बहुत व्यापक है । जितना उन्होंने पढ़ा, बहुत कम ने उतना पढ़ा होगा । जब उनके विराट अध्ययन की झांकी मुझे मिली तो मुझे मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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