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मुनि विद्यानन्दजी का दिव्य प्रवचन अखण्ड ज्ञान का अमृत-कलश हाथ में थामे हुए ऊपर उठता है, धरती के सम्पूर्ण कुहरे को अतल में ढकेलते हुए उस सतह तक-- जहाँ सत्यम् शिवम् सुन्दरम् अपना मस्तक गौरव के साथ ऊँचा कि ये खड़े हैं जीवन के प्रांगण में दिव्यता की खिड़की खोलते हुए। ज्ञान-सृष्टि के विस्तारक ! तिरस्कृत अर्थों के संरक्षक युग के संस्थापक रोशनी के प्रस्तोता मुनि विद्यानन्दजी तुमको कोटि-कोटि प्रणाम ! ओ मनुजत्व के संगम ! तुम सदैव अर्थों को देते रहे जीवन जीवन को देते रहे पथ तुमने कभी नहीं स्वीकारी, लक्ष्मण-रेखाओं की मर्यादा और सृजन के पहिये को घुमाते हुए तुम निरन्तर बढ़ते जा रहे हो, खाली घटों की भीड़ में युग की कटी बांहों को जोड़ते हुए। ओ रोशनी के इतिहास ! तुम आस्था की सांस बनकर हर देहरी पर पहरा दे रहे हो जागरण की मीनार बनाते हुए। विधाता के अछते ग्रन्थ ! तुम हमेशा सत्य-सौन्दर्य के माथे पर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को चिपकाते रहे अवनि पर धर्म को विराटत्व का चोगा पहनाते हुए। मेरे अन्तस् के महान् सौन्दर्य ! तुम्हारे प्रवचन संकल्पों के जनक हैं द्रवित और अदम्य हजार-हजार दरों पर अभेद्य अपराजेय प्रहरी।
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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