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किया है, ऐसा तो मुझे अचुक प्रतीयमान हो रहा है । मेरा इसमें कोई कर्त त्य नहीं : यह केवल उन प्रभु की जिनेश्वरी कृपा का खेल है।
... मुनिश्री के आदेशानुसार, तीसरे पहर हम दोनों उनके निकट उपस्थित हुए। व्यवस्था की बात पर मैं विचित्र असमंजस में पड़ गया। दूध का जला छाछ को भी फूंककर पीता है । इसी सन्दर्भ में जैन समाज से सम्बद्ध अपने कई विगत अनुभव मुझे स्मरण हो आये। मेरे भीतर अवज्ञा और अपमान के कई पुराने ज़ख्म टीस उठे । मैं झिझकता-सा बोला :
महाराज श्री कुछ कहना चाहता हूँ । ' 'दिल खोलकर कहो, दिल में कुछ दबा रहे, यह ठीक नहीं।' आश्वस्त हुआ और भावाविष्ट होकर बोला :
'भगवन् , इस आना-पाई-सिक्के हिसाब-किताब की वणिक् व्यवस्था से, मेरी कभी बनी नहीं, और बनेगी भी नहीं। मैं ठहरा आत्मजात ब्राह्मण, किसी ऋणानुबन्ध से योगात् वणिक्-वंश में जन्म पा गया। पर वणिक नहीं हो सका, ब्राह्मण ही रह गया। और इसे मैं अपने मानव-जन्म की धन्यता मानता हूँ।'
मुनिश्री शान्त, समाहित भाव से बोले :
'सो तो प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। इसमें सन्देह की कहाँ गुंजाइश है। इसी से तो मुझे तुम्हारी ज़रूरत है । ब्राह्मण-श्रेष्ठ इन्द्रभूति गौतम की प्रतीक्षा में तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि तक रुकी रही....?'
मुझे सुदृढ़ सम्बल प्राप्त हो गया। मैंने निर्भीक भाव से निवेदन किया :
...."हिसाब-किताब से चलना मेरे वश का नहीं। यहाँ तो दान भी ठीक-ठीक गिनकर दिया जाता है, बही-खाते में पाई-पाई लिखा जाता है, और उस पर दाता के नाम का शिलालेख जड़कर, उसमें ठीक-ठीक रक़म आँकी जाती है। और बदले में अगले जन्म में मिलने वाले पुण्य का इन्श्योरेंस और बेक-वेलेंस भी चक्रवृद्धि-ब्याज सहित गिन लिया जाता है ।'
'जानता हूँ, कहे जाओ, अपनी बात । तुम्हारे दर्द को सुनना चाहता हूँ ।'
'इस समाज ने जिन-शासन की परम्परा के एकमात्र ज्ञान-संवाहक पंडितों को अपने द्वार के भिखारी, भामटे (ब्राह्मण के लिए महाजनों का तिरस्कार सूचक शब्द) बनाकर छोड़ दिया है। उदर-पोषण की उनकी विवशता का दुरुपयोग करके हमने उन्हें श्रीमन्तों के चाटकार और भाट बना दिया। बुन्देलखण्ड की पंडित-रत्न-प्रसविनी धरती इसकी साक्षी है। बुन्देलखण्ड की पंडित-जेनेतृ माओं के आँसू और ज़ख्म इसके साक्षी हैं।....' नतीजा आखिर यह हुआ कि आज के जागृत बुन्देलखण्ड का जैन युवा धर्म-शास्त्र
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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