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गोपालदास बरैया और गणेशप्रसाद वर्णी की जनेता धर्म-कोख आज बाँझ होने की हद पर खड़ी है। क्या समाज के सर्वे श्वरों को इसकी चिन्ता कभी व्यापी है ? कतई नहीं । कान पर जं तक नहीं रेंगती; क्योंकि यह व्यवस्था गैर सामाजिक और गैर जिम्मेवाराना है। यह समाज है ही नहीं, केवल व्यक्त स्वार्थों के पारस्परिक गठबन्धन की दुरभिसन्धि है। . . .
_ 'अवश्य जाओगे। पर क्या खाली हाथ जाओगे? हमारे गत वर्षावास में इन्दौर में श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ-प्रकाशन समिति की स्थापना हुई थी। उसके तत्त्वावधान में ही तुम्हें महावीर-उपन्यास लिखना है। उसके मंत्री बाबूलाल पाटोदी कल सबेरे यहाँ पहुँच रहे हैं। उनके आने पर यह व्यवस्था उन्हें सहेज दूंगा। उनसे मिलकर चले जाना।'
... अद्भुत दैवयोग सामने उपस्थित हुआ । मैं चकित रह गया । बाबुभाई तो मेरे इन्दौर-काल के स्नेही और मित्र रहे हैं। युग बीत गये, उनसे भेंट न हुई। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में वे अपनी तेजोदृप्त वाणी से मध्यप्रदेश की राजनीति के तख्ते हिलाते रहे, और मैं अपने सृजन की चोटियों पर आरोहण करने के संघर्ष के दौरान, अनेक अवरोधों की अन्धी घाटियों में अकेला टकराता रहा । बाबुभाई आखिर राजनीति की वारांगना को तिलांजलि देकर, उसके अनेक प्रेमियों के व्यंग्य-बाणों की अवहेलना करते हुए, भगवान महावीर के धर्म-शासन की सेवा में समर्पित हो गये । और मैं द्विजन्म पाकर उन्हीं भगवान् के चरितगान का संकल्प लेकर श्री महावीरजी आया था ।
... अगले दिन सवेरे ही, चाँदनपुर के त्रिलोक-पिता के श्रीवत्सल चरणों में, जब बरसों बाद हम दोनों भाई आलिंगनबद्ध हुए, वात्सल्य-प्रीति का वह लग्न-क्षण मेरी चेतना की शाश्वती में अमर हो गया है। ऐसे मिले मानो जनम-जनम के बिछुड़े मिले हों। इसी को तो कहते हैं दिव्य संयोग, और श्रीगुरु-कृपा। हमने मिलकर जाने कितने पुराने संस्मरण दोहराये । बाबूभाई उन्मेषित होकर बोले : 'वीरेन भाई, केवल तुम्हीं वह लिख सकते हो, जो महाराजश्री चाहते हैं। और सुनो मेरी बात, 'मुक्तिदूत' से बहुत-बहुत आगे जाएगा, तुम्हारा यह उपन्यास । मैं जानता हूँ, तुम्हारी यह कृति तमाम दुनिया में जाएगी, विश्व-विख्यात होगी।'..... मैं सर से पैर तक रोमांचित हो आया, अपने एक स्नेही भाई की यह वात्सल्य-गर्वी वाणी सुनकर । लगा कि जैसे स्वयम् मेरी नियति बोल रही है!
__..."आज जब उपन्यास समाप्ति की ओर है, बाबूभाई के वे ज्वलन्त शब्द स्मरण करके कृतज्ञता से मूक हो जाता हूँ। विश्व-ख्याति की बात मैं नहीं जानता, वह मेरा लक्ष्य भी नहीं। पर भगवान् महावीर ने मेरी क़लम से उतरकर धरती पर चलना स्वीकार
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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