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________________ आज विभिन्न धार्मिक एवं राजनीतिक मतवादों से संसार पीड़ित है। विभिन्न मतवादों के अलग-अलग मंच हैं। इन अलग-अलग मंचों पर उनके कट्टर समर्थक बैठे हुए हैं। सब के अपने-अपने तर्क और अपने-अपने आग्रह हैं। किसी को किसी अन्य की सुनने की फुरसत नहीं । न कोई आवश्यक ही समझता है कि दूसरे की बात भी सुनी जाए, गुनी जाए। सभी अपने-अपने निष्कर्षों के प्रति आश्वस्त हैं । निश्चित हैं । दृढ़ हैं। दूसरों के विचार और तर्क उनके लिए बकवास हैं। अपनी-अपनी स्थापनाएँ उनके लिए पूर्ण व अन्तिम हैं। परिणामतः देश में द्वेष, कटुता, संघर्ष और हिंसा की स्थितियाँ विद्यमान हैं। इस प्रकार के एकान्त दुराग्रहों के बीच हमें महावीर का अनेकान्त एकदम प्रासंगिक लगता है। महावीर का अनेकान्त एक ही वस्तु को अनेक दृष्टियों से देखे जाने की संभावनाओं पर बल देता है। यथार्थ सत्ता के अनेक रूप हो सकते हैं। और उनमें से कोई भी रूप अपने आप में पूर्ण नहीं होता। महावीर का अनेकान्त-दर्शन किसी भी वस्तु अथवा विचार के प्रति सहिष्णता का वातावरण निर्मित करता है। यह अनेकान्त किसी भी वस्तु अथवा विचार के प्रति अनेक लोगों द्वारा व्यक्त किए गए अनेक कथनों को सत्यांश मानता है । वह यही मानता है कि किसी एक सत्यांश में ही पूर्ण सत्य होगा, किन्तु उसमें सत्यांश की संभावना अवश्य है। और महावीर का अनेकान्त उन सब की शोध कर उन सब में से गुजरकर पूर्ण सत्य की शोध के लिए हमें प्रेरित करता है। कोई सत्यांश अपने आप में पूर्ण नहीं है । और प्रत्येक दृष्टिकोण में सत्यांश होता। अतः महावीर का अनेकान्त हमें प्रत्येक दृष्टिकोण में सत्यांश की अभिव्यक्ति के प्रति आश्वस्त करते हुए विभिन्न दृष्टिकोणों में से गुजरकर सत्य की शोध के लिए आह्वान तो करता ही है, वह वैचारिक धरातल पर सहअस्तित्व का सिद्धान्त ही बन गया है। . महावीर ने 'जियो और जीने दो' का नारा देकर संसार में सब को जीने का समान अधिकार दिया। किसी को यह हक नहीं कि वह अपने जीने के लिए दूसरे को न जीने दे। संसार के सारे प्राणी समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं । और महावीर की अहिंसा इसीलिए विश्वविदित है। अहिंसा सिद्धान्त को अपना कर इस अणु-आयुधों के युग में भी महात्मा गांधी ने यह सिद्ध कर कर दिखाया कि अहिंसा की शक्ति अपरिमित है। अपनी अहिंसा से उन्होंने उस साम्राज्य को पराजित किया, जिसका सूर्य कभी नहीं डूबता था । महावीर की अहिंसा, उनका अनेकान्त, उनका अपरिग्रह, सभी प्राणियों को समान देखने की उनकी दृष्टि, 'जियो और जीने दो' का उनका नारा वर्तमान युग में हम सबको आकर्षित कर रहे हैं और अत्यन्त प्रासंगिक बने हुए हैं। तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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