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गई है । परिणामतः आज कर्म से दरिद्र उपदेशकों की भीड़ बढ़ गई है। हर चालू हमें पाँच मिनट में ढाई किलो उपदेश दे जाता है, जिसका शतांश भी उसके चरित्र में कहीं चरितार्थं नहीं मिलता। यहां महावीर याद आते हैं । वे मन, वचन और कर्म की शुद्धता पर बल देते हैं । निर्मल मन, संयत वचन और तदनुकूल कर्म मनुष्य के चरित्र को दृढ़ बना सकते हैं । और ऐसा दृढ़ व्यक्ति ही नेतृत्व का अधिकारी हो सकता है । क्योंकि ऐसे व्यक्ति की कथनी के पीछे संकल्प होगा, कर्म होगा । उसकी कथनी चूंकि थोथा उपदेश नहीं होगी, अत: वह प्रेरित करेगी ।
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और महावीर हमें क्यों प्रेरित करते हैं ? क्यों हमें भीतर तक छू जाते हैं ? इसीलिए तो, कि उन्होंने अपने मन, वचन और कर्म को अपने जीवन में एक मंच पर बिठाकर अपने चरित्र के सूत्र में पिरो लिया था । अनेक वर्षों की साधना की उपलब्धि के रूप में उन्होंने जो कहा, उसके पीछे उनकी जीवनानुभव की शक्ति थी । जीवनानुभव के बिना इधर जो उपदेश हमें दिये जाते हैं, उनके पीछे आचरण की शक्ति न होने के कारण हमें आकर्षित नहीं करते । मन, वचन और कर्म का जिसके जीवन में सामंजस्य नहीं मिलेगा, उसकी कथनी और करनी संदर्भहीन होगी । वह वैसा ही खण्डित व्यक्तित्व होगा, जैसा कि आज आधुनिक साहित्य में व्यक्त किया जा रहा है ।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश में समाजवाद का बड़ा हल्ला है । समाजवाद की चर्चा प्रत्येक राजनीतिक व सामाजिक संगठन का प्रिय विषय बनी हुई है । इस सब के बाद भी हमारा देश समाजवादिता की ओर एक इंच भी आगे बढ़ता दिखलाई नहीं देता । समाजवाद धन और ऐश्वर्य के प्रति उदासीनता का भाव जागृत नहीं करना चाहता । वह उनके बटवारे मात्र के लिए अधिक चिन्तित है । और बटवारा इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि सामाजिक प्रतिष्ठा के मूल्य ही धन सम्पत्ति और ऐश्वर्य बने हुए हैं । यहाँ महावीर का अपरिग्रह हमारे सामने प्रासंगिक हो उठता है । महावीर का अपरिग्रह सम्पत्ति के बटवारे की बात नहीं करता । वह तो अनावश्यक धन-सम्पत्ति से लगाव ही न रखने की बात कहता है । महावीर का अपरिग्रह सामाजिक मूल्यों के सीधे निकट पहुँचकर कहता है कि जो जितना अपरिग्रही है, वह उतना ही महान् है । और अपरिग्रह ही अहिंसक हो सकता है; अतः धन-सम्पत्ति में होड़ करने वाला सामाजिक प्रतिष्ठा का पात्र नहीं है । प्रतिष्ठा का पात्र वह है जिसके मन में परिग्रह के प्रति विकर्षण है । वही समाज में आगे बैठने का सुपात्र है । ऐसा अपरिग्रही ही आदरणीय है । ऐसा अपरिग्रही दरिद्री नहीं है, वह संचय की कुप्रवृत्तियों से मुक्त समृद्ध मानव है । अपरिग्रह की ऐसी प्रतिष्ठा यदि सामाजिक मूल्य के रूप में हो जाए तो समाजवाद की सुखद परिकल्पना आसानी से साकार हो सकती है ।
मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक
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