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________________ सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण-परम्परा का अप्रतिम महत्त्व है। इस पम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्णों, वादों, संप्रदायों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव-महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अनुपम है । विकास में चाहे कितना ही सहायक हो; किन्तु उससे सामाजिक संबन्धों की सम्बद्धता, समरसता एवं समस्याओं के समाधान में अधिक सहायता नहीं मिलती। आज के भौतिकवादी युग में केवल वैराग्य से काम चलने वाला नहीं है; आज हमें मानव की भौतिकवादी दृष्टि को नियमित करना होगा; भौतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित करना होगा, मन की कामनाओं में त्याग का रंग मिलाना होगा। आज मानव को एक ओर जहाँ इस प्रकार का दर्शन प्रभावित नहीं कर सकता कि केवल ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, वहाँ दूसरी ओर भौतिक तत्त्वों की ही सत्ता को सत्य मानने वाला दृष्टिकोण भी जीवन के उन्नयन और विकास में सहायक नहीं हो सकता। आज भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय की आवश्यकता है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्णायक रूप में व्याख्या करनी होगी। इस दृष्टि से आध्यात्मिक साधना के ऋषियों एवं मुनियों की धार्मिक साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक साधना के अलग-अलग स्तरों को परिभाषित करना आवश्यक है। धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जो वैज्ञानिक हो। वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तिकाओं को खोजने का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्त्वचिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है; किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध नहीं होना चाहिये। __ आज के मनुष्य ने प्रजातंत्रात्मक शासन-व्यवस्था को आदर्श माना है । हमारा धर्म भी प्रजातंत्रात्मक शासन-पद्धति के अनुरूप होना चाहिये। प्रजातंत्रात्मक शासन-व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त होते हैं। स्वतन्त्रता एवं समानता इस जीवन-पद्धति के दो बहुत बड़े जीवन-मूल्य हैं। दर्शन के धरातल पर भी हमें व्यक्ति-मात्र की समता एवं स्वतन्त्रता का इसके समानान्तर उद्घोष करना होगा। युगीन विचारधाराओं पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो उनकी सीमाएँ स्पष्ट हो जाती हैं। साम्यवादी विचारधारा समाज पर इतना बल दे देती है कि मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता के बारे में वह अत्यन्त निर्मम तथा अकरुण हो उठती १४८ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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