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________________ है। इसके अतिरिक्त वर्ग-संघर्ष एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन के कारण यह समाज को बाँटती है, गतिशील पदार्थों में विरोधी शक्तियों के संघर्ष, या द्वन्द्व को जीवन की भौतिकतावादी व्यवस्था के मूल में मानने के कारण सतत संघर्षत्व की भूमिका प्रदान करती है, मानव-जाति को परस्पर अनुराग एवं एकत्व की आधारभूमि प्रदान नहीं करती। इसके विपरीत व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य पर बल देने वाली विचारधाराएँ समाज को मात्र व्यक्तियों का समूह मानती हैं और अपने अधिकारों के लिए समाज से सतत संघर्ष की प्रेरणा देती हैं तथा साधन-विहीन, असहाय, भूखे, पद-दलित लोगों के उद्धार के लिए इनके पास कोई विशेष सचेष्ट योजना नहीं है। फ्रायड व्यक्ति के चेतन, उपचेतन मन के स्तरों का विश्लेषण कर मानव की आदिम वृत्तियों के प्रकाशन में समाज की वर्जनाओं को अवरोधक मानता है तथा व्यक्ति के मूल्यों को सुरक्षित रखने के नाम पर व्यक्ति को समाज से बाँधता नहीं, काटता है। इस प्रकार युगीन विचारधाराओं से व्यक्ति और समाज के बीच, समाज की समस्त इकाइयों के बीच सामरस्य स्थापित नहीं हो पाता। इसलिए आज ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो सामाजिकों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एवं बन्धुत्व का वातावरण निर्मित कर सके। यदि यह न हो सका तो किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन-पद्धति से समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी। इस दृष्टि से, हमें यह विचार करना है कि भगवान् महावीर ने ढाई हजार वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन पर आधारित अपरिग्रह एवं अहिंसावाद से संयुक्त जिस ज्योति को जगाया था उसका आलोक हमारे आज के अन्धकार को दूर कर सकता है या नहीं? आधुनिक वैज्ञानिक एवं बौद्धिक युग में वही धर्म एवं दर्शन सर्वव्यापक हो सकता है जो मानव-मात्र को स्वतन्त्रता एवं समता की आधार-भूमि प्रदान कर सकेगा। इस दृष्टि से भारत में विचार एवं दर्शन के धरातल पर जितनी व्यापकता, सर्वांगीणता एवं मानवीयता की भावना रही है, समाज के धरातल पर वह वैसी नहीं रही है। दार्शनिक दृष्टि से यहाँ यह माना गया कि जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है वह सब एक ही ईश्वर से व्याप्त है; 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस प्रकार की मान्यताओं के बावजूद भी यहाँ अद्वैत दर्शन के समानान्तर समाज-दर्शन का विकास नहीं हो सका। मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १४९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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