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________________ है और उस शब्द के अर्थ का जो अपकर्ष हुआ है उसके पीछे यही लोक-दृष्टि सक्रिय है। 'अपने प्रति भी ममता न हो'--यह अपरिग्रह-दर्शन का चरम लक्ष्य है। श्रमणसंस्कृति में इसीलिए शारीरिक कष्ट-सहन को एक ओर अधिक महत्त्व दिया है तो दूसरी ओर इस पार्थिव देह-विसर्जन (सल्लेखना) का विधान किया गया है। वैदिक संस्कृति में जो समाधि-अवस्था, या संतमत में जो सहजावस्था है, वह इसी कोटि की है। इस अवस्था में व्यक्ति 'स्व' से आगे बढ़कर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी नहीं रह जाता। योग-साधना की यही चरम परिणति है। संक्षेप में महावीर की इस विचारधारा का अर्थ है कि हम अपने जीवन को इतना संयमित और तपोमय बनायें कि दूसरों का लेशमात्र भी शोषण न हो, साथ ही स्वयं में हम इतनी शक्ति, पुरुषार्थ और क्षमता भी अजित कर लें कि दूसरा हमारा शोषण न कर सके । प्रश्न है ऐसे जीवन को कैसे जीया जाए ? जीवन में शील और शक्ति का यह संगम कैसे हो? इसके लिए महावीर ने 'जीवन-व्रत-साधना' का प्रारूप प्रस्तुत किया। साधना-जीवन को दो वर्गों में बाँटते हुए उन्होंने बारह व्रत बतलाये। प्रथम वर्ग, जो पूर्णतया इन व्रतों की साधना करता है, वह श्रमण है, मुनि है, संत है, और दूसरा वर्ग, जो अंशतः इन व्रतों को अपनाता है, वह श्रावक है, गृहस्थ है, संसारी है। इन बारह व्रतों की तीन श्रेणियाँ हैं : पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अणुव्रतों में श्रावक स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का त्याग करता है। व्यक्ति तथा समाज के जीवन-यापन के लिए वह आवश्यक सूक्ष्म हिंसा का त्याग नहीं करता। जबकि श्रमण इसका भी त्याग करता है, पर उसे भी यथाशक्ति सीमित करने का प्रयत्न करता है। इन व्रतों में समाजवादी समाज-रचना के सभी आवश्यक तत्त्व विद्यमान हैं। प्रथम अणुव्रत में निरपराध प्राणी को मारना निषिद्ध है किन्तु अपराधी को दण्ड देने की छूट है। दूसरे अणुव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विषय में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निषिद्ध है। तीसरे व्रत में व्यवहारशुद्धि पर बल दिया गया है। व्यापार करते समय अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप, तोल तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करना निषिद्ध है। इस व्रत में चोरी करना तो वर्जित है ही किन्तु चोर को किसी प्रकार की सहायता देना या चुरायी हुई वस्तु को खरीदना भी मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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