________________
दूरी बढ़ा दी । व्यक्ति के जीवन में धार्मिकता-रहित नैतिकता और आचरण-रहित विचारशीलता पनपने लगी। वर्तमान युग का यही सबसे बड़ा अन्तविरोध और सांस्कृतिक संकट है। भगवान् महावीर की विचारधारा को ठीक तरह से हृदयंगम करने पर समाजवादी लक्ष्य की प्राप्ति भी संभव है और बढ़ते हुए इस सांस्कृतिक संकट से मुक्ति भी।
महावीर ने अपने राजसी जीवन में और उसके चारों ओर जो अनन्त वैभव की रंगीनी देखी, उससे यह अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना पाप है, सामाजिक अपराध है, आत्मा को छलना है। आनन्द का रास्ता है अपनी इच्छाओं को कम करना, आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना; क्योंकि हमारे पास जो अनावश्यक संग्रह है, उसकी उपयोगिता कहीं ओर है। कहीं ऐसा प्राणिवर्ग है जो उस सामग्री से वंचित है, जो उसके अभाव में संतप्त है, आकुल है; अतः हमें उस अनावश्यक सामग्री को संगृहीत कर रखना उचित नहीं। यह अपने प्रति ही नहीं, समाज के प्रति छलना है, धोखा है, अपराध है, इस विचार को अपरिग्रह-दर्शन कहा गया, जिसका मूल मन्तव्य है--किसी के प्रति ममत्व-भाव न रखना। वस्तु के प्रति भी नहीं, व्यक्ति के प्रति भी नहीं, स्वयं अपने प्रति भी नहीं। वस्तु के प्रति ममता न होने पर हम अनावश्यक सामग्री का तो संचय करेंगे ही नहीं, आवश्यक सामग्री को भी दूसरों के लिए विसर्जित करेंगे। आज के संकटकाल में जो संग्रह-वृत्ति (होडिंग हेबिट्स) और तज्जनित व्यावसायिक लाभ-वत्ति पनपी है, उससे मुक्त हम तब तक नहीं हो सकते जब तक कि अपरिग्रह-दर्शन के इस पहलू को हम आत्मसात् न कर लें।
व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो इसका दार्शनिक पहलू इतना ही है कि व्यक्ति अपने स्वजनों तक ही न सोचे; परिवार के सदस्यों के हितों की ही रक्षा न करे वरन् उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो। आज प्रशासन और अन्य क्षत्रों में जो अनैतिकता व्यवहृत है उसके मूल में 'अपनों के प्रति ममता' का भाव ही विशेष रूप से प्रेरक कारण है । इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व से मुक्त हो जाए। इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना ही है कि व्यक्ति 'स्व' के दायरे से निकलकर 'पर' तक पहुँचे । स्वार्थ की संकीर्ण सीमा को लाँघ कर परार्थ के विस्तृत क्षेत्र में आये । सन्तों के जीवन की यही साधना है। महापुरुष इसी जीवन-पद्धति पर आगे बढ़ते हैं। क्या महावीर, क्या बुद्ध सभी इस व्यामोह से परे हटकर आत्मजयी बने । जो जिस अनुपात में इस अनासक्त भाव को आत्मसात् कर सकता है वह उसी अनुपात में लोक-सम्मान का अधिकारी होता है। आज के सथाकथित नेताओं के व्यक्तित्व का विश्लेषण इस कसौटी पर किया जा सकता है। नेताओं के सम्बन्ध में आज जो दृष्टि बदली
१४२
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org