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अनुसन्धान- ७५ (१)
संस्कृतिना केन्द्रमां संस्कार अथवा संस्कारिता होय छे. प्रजाना घडतर संस्कारो बहु महत्त्वनो भाग भजवे छे - ओम आजे आपणे जाणीओ छीओ. आदिमानव माटे से नवीन अने अगोचर प्रदेश हतो. आ आदिपुरुषे आ युगना आरम्भे सौप्रथम प्रजा-घडतरनुं मंडाण कर्यु. तेमणे स्त्री- उचित चोसठ कळा अने पुरुषोचित बहोंतेर कळाओ प्रवर्तावी. लोक - मानसना शिक्षणनो - संस्करणनो तथा घडतरनो आ ओक नवतर छतां सांगोपांग सम्पूर्ण प्रकार बनी रह्यो .
आदिपुरुष ऋषभदेवे, आम जुओ तो, शुं शुं न कर्तुं ? अक संस्कृति अथवा ओक सभ्य समाजनी रचना कहो के निर्माण, ओने माटे जे पण भूमिका अनिवार्यपणे आवश्यक होय ते बधी ज भूमिका तेमणे निरमी, पूरी पाडी. अने आ रीते थयां भारतनी सभ्यतानां मंडाण.
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अक परिपूर्ण संस्कृतिनां बे अंगो होय छे : भोग अने त्याग. बन्ने अंगो एकबीजानां पूरक छे. भोगविहोणा त्यागमां पराक्रमनी छांट नथी होती. अने त्यागमां पर्यवसित न थनारा भोगमां विकृति सिवाय कशुं नथी होतुं त्यागीने भोगवो, अने भोगवीने त्यागो - संस्कृतिनुं चक्र आ रीते गति करे छे.
आदिनाथ ऋषभदेवे भोग अने उपभोगना व्यवहारोने अनुकूळ ओवी बधी ज बाबतो जेम आपी, तेम तेमणे से बधांनो त्याग केवी रीते करवो, अने त्याग से भोगोपभोगथीये अधिक उपयुक्त तथा मूल्यवान छे अनी समजण पण आपी.
जे पळे ओमने लाग्युं के हवे पोतानुं समाज प्रत्येनुं दायित्व तेमज कर्तृत्व पूरुं थयुं छे, ते ज पळे तेमणे समग्र भौतिकताना त्यागनो निर्धार कर्यो. तेना प्रतीकरूपे ओक वर्ष सुधी तेमणे प्रजाजनोने यथेष्ट दान आप्युं. अने ओक दहाडो ओ माता-पुत्र - पत्नी सहित समग्र परिवारनो, समाजनो, राज्यनो, सत्ता-संपत्तिनो त्याग करी, पोताना जन्मजात प्राकृतिक शुद्धरूपमां वर्तता चाली नीकळ्या. तेमना ओ त्यागनुं सांस्कृतिक नामाभिधान थयुं : दीक्षा, प्रव्रज्या.
ओकाकी, असहाय (निःसहाय नहि), आत्ममस्त अ आदिपुरुषनो आ त्याग - वैभव अने मौन - वैभव, तेओ ज्यां ज्यां विहर्या त्यां त्यां सहुने माटे अचंबानो