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मूळ स्वरूप सुधी पहोंचवानुं होय छे. आमां कशुं आडेधड न चाले : कल्पना तो हरगीज न चाले; हा, कल्पकता होवी जरूरी.
एक शब्द हतो 'मावळु' : एक विद्वाने तेनी व्युत्पत्ति आपी : मा नी जेम वृष्टि ते मावठं. (स्मरणने आधारे नोंध्यु छे. भूलचूक लेवी-देवी). हवे आमां कल्पकता ओछी छे ने कल्पना झाझी. 'मावळुनुं मूळ 'माघ-वृष्टि'मां छे. महा मासमां पडता कमोसमी वरसादने 'मावठां' तरीके ओळखवामां आवे छे. अहीं उत्खननमां कल्पनानुं ओजार जराक आडं पडी जाय तो केवु विचित्र अर्थघटन नीपजे ते समजवा जेतुं छे.
___ उपाध्याय विनयप्रभरचित 'गौतमरास'मां एक पंक्ति छे : 'तीरि तरंडक जिम ते वहता' : अर्थात् 'ते - देवो तीर (अने) तरंडकनी जेम वहेता थया.' आ पाठ ने आ अर्थ परम्पराथी चाले छे; एमां कोईने क्यारेय प्रश्न थयो के थतो नथी. 'तीर' अने 'तरंडक' - आम बे उपमान एक वाक्यमां केम? ते युक्त छे के केम? - आवो कोई सवाल क्यांय उठतो नथी; यथातथ स्वीकार ज थतो रह्यो छे. 'तीर' एनी जाते सडसडाट केम वही जाय? - एम पूछवामां आवे तो तरत समाधान मली जाय के 'ए तो कोईए फेंक्युं होय तो वही ज जाय ने!' अहीं एक क्रिया वर्णववा माटे लगोलग बे उपमान आम कोई कुशल कवि प्रयोजे? - एवो प्रश्न नथी थतो.
आवो प्रश्न बधाने भले न थाय; संशोधकने थाय. डॉ. भायाणी तथा श्रीअगरचंद नाहटा जेवा ख्यात विद्वानोने आवो सवाल थयो, अने तेमणे आ शब्द के पाठना मूळनी गवेषणा करी, तो तेमने पाठ जड्यो : 'नीरि तरंडक जिम ते वहता' अर्थात्, पाणीमां वहेता तरंडक-तरापा के होडीनी जेम ते-देवो वही गया.'
___ 'तीरि' अने 'नीरि' - केटलो नानकडो तफावत! पण केटलो मोटो अर्थ-भेद! शब्दोना उत्खनननी प्रक्रिया केवी सूक्ष्म अने केटली मर्म-सभर!
बधा ज ज्यारे 'तीर' ने साचो पाठ मानीने चालता होय त्यारे 'कोई'ने ए पाठमां गरबड होवानुं लागे त्यारे तेमना मनमां चालनारी प्रक्रिया कांईक आवी होय : सन्देह → जिज्ञासा → प्रश्न → कल्पकता → उत्तर. हा, संशोधक सदाय सन्देहशील पण होय, जिज्ञासु पण होय, अने तेथी तेने प्रश्न उद्भवता अने सतावता ज रहेता होय. पोतानी कल्पनाशक्ति द्वारा घणीवार उत्तर ते शोधे, तो मोटा भागे