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अनुसन्धान-७५(१)
मुनिगणने अनुवन्दना, पत्रलेखकना सहवर्ती मुनिगण तरफथी गुरुजीने वन्दना, मुनिगणनी नामावलि, संघ द्वारा वन्दनानुं निवेदन करी विज्ञप्तिपत्र, समापन करवामां आवे.
___ समयान्तरे संस्कृत भाषालेखनमां शिथिलता आवती गई तेम १७मा शतकथी प्रादेशिक भाषाओमां विज्ञप्तिपत्रो लखावा मांड्या. अमां भाषाना मिश्र प्रयोगो पण जोवा मळे. मङ्गलाचरण संस्कृतमां होय, गुरुगुणस्तवना मध्य. गुजरातीमां होय तो श्रीसंघनी विज्ञप्ति मारवाडीमां पण होय.
नवाईनी वात ओ लागे छे के आपणां प्राकृतभाषी आगम-आगमेतर शास्त्रो अने धर्मग्रन्थोना अध्ययन साथे सतत संकळायेला रहेला मुनिभगवंतोनी कलमे लखायेला प्राकृतभाषी विज्ञप्तिपत्रो अहीं मात्र ३नी संख्यामां ज प्रकाशित छे! प्राकृत भाषाना श्रवण-वाचननी तुलनाओ अनुं लेखन मुश्केल बन्युं हशे? के पछी आवां विज्ञप्तिपत्रो हजी अनुपलब्ध रह्या हशे? आ पण ओक संशोधननो विषय बनी शके.
स्वजन, मित्र के वेपारी तरफथी आपणने 'पोस्ट'थी मळता पत्र जेवो आ विज्ञप्तिपत्र कोई कागळ-पत्र हशे अम मानी अनी अवगणना करवी ओ ओक मोटी भ्रमणा गणाशे. पत्रमा जिनेश्वरोनी स्तुतिमां व्यक्त थतो भक्तिभाव, शिष्यनां गुरु प्रत्येना आदर, विनय, मिलननी उत्कटता, गुरुविरहनी व्यथा आदिनी संवेदनासभर अभिव्यक्ति, गुरुगुणस्तवना अने नगरवर्णनोमां छलकातो कल्पनावैभव, झडझमक, यमकप्रयोग, शब्दानुप्रास, आन्तरप्रास द्वारा अलङ्कारमण्डित थतुं कृतिनुं बहिरङ्ग, छन्दोवैविध्य, चारणी छन्दोनी छटा दाखवतुं शब्दसंगीत, ललितकोमल पदावलिओ, देशीबद्ध ढाळोमां आवती लयात्मक ध्रुवाओ, बन्धचित्रोनां आलेखनोमां जोवा मळतुं कलाकौशल अने अमां छती थती कविप्रतिभा तेमज अतीतनी अनेक औतिहासिक विगतोथी समृद्ध अवो आ विज्ञप्तिपत्र केवळ 'कागळ' न रहेतां अक साहित्यिक सर्जन बने छे. विशेषतया जैन साहित्यनां जे दीर्घ-लघु साहित्यस्वरूपो गणायां छे, अमां विज्ञप्तिपत्रने पण नि:संकोच अक विशिष्ट साहित्यस्वरूप तरीके स्वीकारवू ज पडे.
विज्ञप्तिपत्रोमां व्यक्त थती कविप्रतिभाना केटलांक उदाहरणोनी नोंध लेतां वात करीशुं श्रीमुनिसुन्दरसूरिजीरचित 'त्रिदशतरङ्गिणी'ना अप्रगट रहेला