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सप्टेम्बर - २०१८
११५ आपे छे. आ सवाल पूछनार ज तेनो जवाब आपे छे. नमूना रूपे जणाएं तो - हंसदास कहे छे : प्रश्न : 'कोन जगाडे नामने, कोन जगाडे प्रेम;
कोन जगाडे पुरुषने, कोन जगाडे ब्रह्म.' जवाब : 'मारी हेली सुरता जगाडे नामने, नाम जगाडे प्रेम;
प्रेम जगाडे पुरुषने, पुरुष जगाडे ब्रह्म.' आ समग्र प्रक्रिया नामसाधनानी छे. आ नामसाधनाथी भीतरनी चेतनाओ जागे छे. प्रश्न : 'मारी हेली कोन ब्रह्मका रूप है, कौन ब्रह्मका स्थान;
कोन ब्रह्मका बेसणा, कौन ब्रह्मका मेलाण'. जवाब : 'मारी हेली आनंद ब्रह्मको रूप हे, गगन ब्रह्मका स्थान;
निरांत ब्रह्मका बेसणा, अप्रोक्ष ब्रह्मका मेलाण'. अर्थात् आनन्द ब्रह्मनुं रूप छे, गगन-चिदाकाश-शून्य शिखर ब्रह्मनुं स्थान छे. निरांत अटले दरेक प्रकारना संकल्प-विकल्पथी मुक्त थाय ते स्थितिने कहे छे. पछी तेने सुख-दुःख, जन्म-मरण, मारुं-तारु, ऊंच-नीच आवा कोई विकार रहेता नथी. आ स्थितिने ब्रह्मनु बेसणुं कहेवामां आवे छे. ने आ ब्रह्मनुं मेलाण-पथारो सचराचरमां ने अपरोक्ष विलसी रहेल छे. आवा ब्रह्मनी अनुभूति दर्शननी अभिव्यक्ति 'हेली' प्रगट थयेली अनुभवाय छे. आq दर्शन थया पछी शुं ? भादुदास कहे छे :
'आनंद हेली उभराणी संतो
__ आनंद हेली उभराणी रे जी.' मात्र आनन्द माणी शकाय छे. आ आनन्द केवो ? अलौकिक, मात्र हरखने हेली चडे छे. तेम छतां आपणे तेमने पूछीओ के त्यां शुं छे ए तो कहो :
'चंद्र सुरज तो वां घर नाहीं, नहि पवन नहि पाणी;
अष्ट कूळ पर्वत उस घर नाही, नहि वेद नहि वाणी.' सन्तोओ दृश्यमान जगतथी, वेद अने वाणीथी पर थईने ऊडवानो मार्ग