________________
मार्च - २०१६
४७
रतन-जडी सिरि वेणि-प्रचारा, जोवन-रायतणी असि-धारा । पहिरीय हीर सुचीर उदारा, जानु कि भूमि रही सुर-दारा ॥४२॥ निलवटि तिलक धरई मनुहारी, जाणे मनमथ-मंदिर-बारी । कंकण कनकतणा करि धारी, रूपि जिस्यी सुर-नाग-कुमारी ॥४३।। सुंदर वदन सुपूनिम-चंदा, दीपई दंत जिस्या मचकुंदा । नयन विकासि सोहइं अरविंदा, निरुपम रूप सुतेजि दिणंदा ॥४४॥ राता अधर सुविद्रुम-खंडा, कमल-सुनाल जिस्यी भुज-दंडा । अति-गंभीर सुनाभि-तरंडा, मदन-महा-रस-केलि-करंडा ॥४५॥ भमुह-कमाणि करी गुण संधई, नयन-सुतीर धरि मन विंधई । उन्नत पीन पयोधर बंधई, भमर भमई पदमिनि-रस-गंधइं ॥४६॥ षोडस सार सिंगार सुविरची, कोमल अंग सुचंदन चरची । पुरुष-प्रधानतणा पद अरची, मोडीय मांन कहई गुण-रच्ची ॥४७॥ "तुं नर सुंदर रूप-निधानी, हुं गणिका गुण-रयण-सुखानी । मिलीयउ योग ज्युं ईश-भवानी, कवण विलंब करई अभिमानी ॥४८॥ ए मुझ मंदिर सुंदर वासी, भोगवि भोग सुलील-विलासी । गणिका-मारग-मूल निरासी, हूई इणि भवि हुं तुझ दासी" ॥४९॥
॥ दूहा ॥ वचन सुणी सुंदरितणां, मंत्री-सुत मन-रंगि । तसु मन-परमारथ लही, वचन वदई उछरंगि ||५०|| "रे भोली सुणि कोसि तुं, तुम्हस्युं कवण सनेह । उत्तम-कुलवंती वहू, अंति न दाखई छेह ॥५१॥ चरित कहुं गणिकातणुं, तुं संभलि इक-चित्त । मुखि मीठी विणठी हियइं, भोलवि ल्यइं पर-वित्त ॥५२॥
॥ ढाल - ५ ॥ को(वे)श्या कूडतणी कही कोठी, बाहिर-रंग जिसीअ चणोठी । वांनरि रीछिण जिम घण रूठी, वाघिणनी परि विलगइं ऊठी ॥५३।। खिण रूसई खिण रंगसु दाखई, मद-उनमाद-भरी मुखि भाखइं । संडतणी परि लाज न राखई, नरस्युं केलि करई मन-पाखइं ॥५४||