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________________ मार्च - २०१६ वाचकश्री-सकलचन्द्राणिरचितं गणधरप्रबोध-श्रीवर्धमानस्तवनम् - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १६मा-१७मा शतकनां घणां वर्षोमां पथरायेलो सत्ताकाळ धरावता वाचक सकलचन्द्रगणिनी आ एक अप्रगट रचना छे. भगवान महावीर द्वारा, तेमना ११ गणधर इन्द्रभूति गौतम आदिने, तेमना पृथक् पृथक् ११ संशयोना निराकरणपूर्वक, प्रतिबोध अने दीक्षा थयां तेनुं वृत्तान्तवर्णन आ ४८ कडीनी रचनामां थयुं छे. तेना ४८मा त्रिभङ्गी अथवा हरिगीत-प्रकारना पद्यमां कर्ताए पोतानुं नाम आलेख्युं छे, साथे पोताना गुरु विजयदानसूरिनो पण उल्लेख कर्यो छे. आ रचनानी प्रति चाणस्माना जैन सङ्घना 'नित्य विनय जीवन मणिविजय ज्ञानभण्डार' (क्र. ९६५)मांथी प्राप्त थई छे. प्रति २ पानांनी छे. प्रान्तभागे सं. १६१६मां लख्यानी नोंध छे, जे परथी कर्ताना सत्ताकाळमां ज ते लखायेली छे तेम समजाय छे. कर्तानो स्वहस्त होय तोय ना नहि. सो सुत तिसला-देवि-सतीनो, जस पद पूजइ रमणि सि(स)चीनो । जस तणु सुभगो विगत जरीनो, राजहंस जो कृपा-नदीनो ॥१॥ जो महिमा-कल(कुल?)नृपति-खजीनो, सोषक जो मिच्छत्त-मतीनो । जिण परमाद कीउ न घटीनो, सोइ वीर मि ध्यानि कीनो ॥२॥ वर्धमान जिन त्रिजगधणीनो, ध्यान धरी करि पातक रीनो । जो समतारसपानि पीनो, मनवंछित जस नामि सौंनो ॥३॥ जो जिन-मुनि-ध्यानार्णव-मीनो, जस, गति वायु चरइ सुखडीणो । जो प्रभु विचरिउ देशि अदीनो, मूरति जस अमृतरस थीणो ॥४|| जो अतिशय गुणरयण न दीनो, जस नादिं जीतु सुरवीणो । अकल रूप हइ जो सामीनो, तस ध्यानि मम पातक खीणो ।।५।। जस दंसणि जन ईति-विहिणो, सुगुरु भयो जो सम जोगीनो । सालतरु-तलि झाणि सीनो, तेणि ध्यानि प्रभु केवल लीनो ॥६॥
SR No.520570
Book TitleAnusandhan 2016 05 SrNo 69
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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