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मार्च २०१६
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बार जैन आगमों के उपर सचमुच शोधकार्य किया है । उन्होंने ही मुझे जैन परम्परा का अध्ययन करने की सलाह दी थी । एक कारण यह था कि इस विषय पर भारत के बहार इतना काम नहीं हो रहा था। दूसरा कि विविध भारतीय भाषाओं में मेरी रुचि थी और कम से कम हिन्दी थोडी-बहुत आती थी । प्रो० क० कैया मेरी गुरुणी और पथदर्शिका बन गयीं । वे L.D. विद्यामन्दिर से एवं विशेषतः पं० दलसुखभाई मालवाणिया से अच्छी तरह से परिचित थीं । इसी तरह मेरे जीवन में अहमदाबाद शहर तीर्थ जैसे बन गया । दानाष्टककथाओं के उपर Ph. D. करते समय अहमदाबाद में ही L. D. विद्यामन्दिर में पहली बार आ गयी । उस समय पं. लक्ष्मणभाई भोजक, कनुभाई शेठ, पं. रुपेन्द्रकुमार पगारिया, पं. दलसुखभाई मालवाणिया और प्रो. हरिवल्लभ भायाणी के पास मैंने हस्तलिखित ग्रन्थ पढ लिये और प्राकृत जैन कथा साहित्य के भिन्न-भिन्न स्रोतों का मैंने अध्ययन किया । ये लोग सचमुच विद्यापुरुष ही हैं और विद्यार्थियों के लिये कल्पवृक्ष थे । हर ज्ञानअर्जन इच्छुक व्यक्ति को सहायता देने को सदैव उपस्थित रहे । इस संस्था में अध्ययन करने के लिये आज तक लगभग मैं हर साल आने लगी और कोई न कोई जानकारी अवश्य मिल पाती रही । हमको इन विद्वानों से जानकारी मिली, तो हमको यह ठीक लगा कि उनके शोधकार्य और अधिक प्रचलित करने के लिये एक पैरिस से छपी हुई शोधपत्रिका में पं० मालवाणिया और भायाणी साहब की स्मृति में उनका परिचय दिया जाए और उनकी ग्रन्थसूचि भी दी जाए। उस समय भी, १९८० के आसपास में, पहली बार मुझे जैन साधुसाध्वियों का दर्शन करने का अवसर मिला । डा० कनुभाई शेठ के साथ हम वीरमगाम गये । वहाँ स्वर्गीय जम्बूविजयजी महाराज एक छोटे उपाश्रय में पुस्तकों के बीच में चौमास के लिए बिराजमान थे । जैन साधुओं की विद्या तथा जीवनसरलता को देखकर मैं इतनी प्रभावित हो गयी कि जागृत जैसे हो गई । तब से मैंने यह निश्चय किया कि जब भी गुजरात आ जाऊँगी तब जैन साधु-साध्वियों के पास सीखने जाती रहूँगी और उनके प्रवचन सुनने जाऊँगी । इससे जैन धर्म सीखने की इच्छा हमेशा बढ़ती रही । मुझे लगा कि शिक्षा पाए बिना जीवन का मूल्य नहीं होता क्योंकि शिक्षा से ही मनुष्य में मनुष्यता आती है । जैन सूत्रों में कहा जाता है कि ज्ञान का दूसरा नाम