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________________ १८४ अनुसन्धान-६९ श्रीहेमचन्दाचार्य-चन्दक-१४थी सन्मानित* डॉ. नलिनी बलबीरनु प्रतिभाव-प्रवचन परमपूज्य आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज, परमपूज्य बन्धुत्रिपुटीजी महाराज, पूज्य साधु एवं साध्वीजी महाराज, माननीय देवियों और सज्जनों,. आज जिस समारोह के लिए हम लोग इकट्ठे हुए हैं, वह एक जैन जगत की अभूतपूर्व विभूति के संस्मरण के अवसर पर है क्योंकि वह कलिकाल हेमचन्द्राचार्य का नाम पर ही हो रहा है । और हठीसिंह जैन मन्दिर पुण्य तीर्थ तो है। इस मन्दिर की सुन्दर कला के सामने हम सब लोग जैन परम्परा की एक अद्भुत कृति देख सकते हैं । श्रमण सङ्घ की प्रेरणा से श्रावक सङ्घने एवं कलाकारों ने इसको निष्पादित करने में एक साथ हाथ जोड़ दिये। ऐसी एकता के बिना ऐसी आश्चर्यजनक कृतिया कैसे हो सकती थीं ? सब से पहले मैं संयोजकमण्डल की आभारी हूँ। यहाँ के जैन श्रावक वर्ग को भी मैं बहुत धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने इतना सुन्दर आयोजन किया है। इस शुभ अवसर पर मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहती। केवल जैन धर्म, संस्कृति एवं संशोधन के उपर अपने अनुभव संक्षेप में बोलूंगी। आरम्भ से ही मेरे जीवन का वातावरण भारतीय संस्कृति और सभ्यता से ओतप्रोत रहा । मेरा जन्म फास में हुआ पर ६ साल की आयु तक हम लोग India में ठहरे | माताजी फ्रांसीसी थीं, पिताजी और उनका परिवार सदियों से पुरानी दिल्ली के रहनेवाले हैं । उनका परिवार हिन्दु धर्म मानता है । जैन धर्म से मेरा कोई सहज सम्बन्ध नहीं हुआ। पूरी शिक्षा-दीक्षा फ्रांस में हुई । High school और विश्वविद्यालय में पहले Latin और Greek भाषा तथा साहित्य सीखे गये और मैंने इन विषयों को खुद पढाया। पर M.A. के समय मैंने संस्कृत भाषा और साहित्य का अध्ययन शुरू किया। अध्यापकों के बीच में प्रो० श्रीमती कोलेट कैया थीं, जिन्होंने फ्रांस में पहली * ता. १०-१-१६, हठीभाईनी वाडी - अमदावाद
SR No.520570
Book TitleAnusandhan 2016 05 SrNo 69
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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