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अनुसन्धान-६९
प्रकाश है । जैसे ही दीप से ज्योति आती है, वैसे ही साधुओं और साध्वियों से । इसीलिये विशेषकर आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज तथा साध्वी चारुशीलाजी महाराज का दर्शन करने की जैसे मेरी आदत बन गयी । उस समय मैंने जैन मन्दिरों का सर्वप्रथम दर्शन किया और पर्युषण के अवसर पर मैंने अनेक साधुओं को कल्पसूत्र पढते सुना । शुरु से, जैन परम्परा से मैं इसी लिये आकर्षित हो गई कि इतनी पुरानी है तो भी आज तक इतनी जीवित रह गई है । व्याख्यान सुनते-सुनते हम को पता चलता है कि जैन साधु जैन आगमों का सार आधुनिक परिषद के सामने तथा आधुनिक भाषाओं द्वारा कैसे प्रसारित करते हैं ।
आश्चर्य की बात यह हुई कि जिन व्यक्तियों के पास मैं पढने जाती थी, ये सब लोग जीवन-दोस्त बन गये हैं। उनसे घनिष्ठ सम्पर्क रखना मेरे लिये मुख्य बात है । जहाँ तक कि मुझे ऐसा लगता है कि आत्मीय जीवन
और शोध जीवन के बीच में कोई अन्तर नहीं है । विशेषकर शेठ परिवार और मालवणिया परिवार वास्तव में मेरे परिवार-सदस्य जैसे बन गये हैं ।
जैन हस्तलिपियों की विशेषताएँ एवं इनका इतिहास मेरा एक विषय है । यह आरम्भ से हुआ । सुपात्रदान की आठ कथाएँ, जिन पर मैंने Ph.D. कर लिया, धर्मदास की उवएसमाला की एक गाथा पर आधारित हैं । उनकी भाषा संस्कृत थी, पर बीच में अनेक प्राकृत सुभाषित भी उद्धारित किये गये थे। यह अप्रकाशित ग्रन्थ था, पर इसकी एक हस्तप्रत फ्रांस में Strasbourg Library में रखा था । इस संग्रहालय की सूचि चन्द्रभाल त्रिपाठी ने बनाई थी । एक और प्रति Germany-Berlin में थी । पर अहमदाबाद आने के बाद हमको पता चला कि यह कथासंग्रह गुजरात और राजस्थान में अच्छी तरह प्रचलित था । और हस्तप्रत मिल गयी । इसके अतिरिक्त पाटण की एक प्रति से इन कथाओं का पुरानी गुजराती भाषा में अनुवाद भी प्राप्त हुआ। उसी समय से मैं प्रो० त्रिपाठी से परिचित हो गयी । तब से उनके देहान्त तक हम दोनों ने घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखा और साथ-साथ बहुत काम किया।
Manuscriptology की उनकी पूरी जानकारी थी । उन्होंने मुझे सब कुछ सिखाया । स्वर्गवास से पहले उन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा करवा ली कि British Library की जैन हस्तप्रतों की सूचि समाप्त करूंगी। अनेक साल बीत गये