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मार्च - २०१६
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१. स्वतः प्रामाण्य अने स्वतः अप्रामाण्यनो स्वीकार - साङ्ख्यदर्शन २. स्वतः प्रामाण्य अने परतः अप्रामाण्यनो स्वीकार - वेदान्त अने मीमांसा
दर्शन ३. परतः प्रामाण्य अने स्वतः अप्रामाण्यनो स्वीकार - प्राचीन बौद्ध मत ४. परतः प्रामाण्य अने परतः अप्रामाण्यनो स्वीकार - न्याय अने वैशेषिक
दर्शन ५. अनियमित पक्ष - जैन अने नव्य बौद्ध मत हवे आपणे आ पांचे पक्षो विशे क्रमशः सङ्खपमां विचारीशुं :
१. प्रामाण्य अने अप्रामाण्य बन्ने स्वतः - आ पक्षनो स्वीकार साड्याचार्यों द्वारा थाय छे अवा उल्लेखो माधवाचार्यना सर्वदर्शनसङ्ग्रह, कुमारिल भट्टना श्लोकवार्तिक व.मां मळे छे. परन्तु आ मत पाछळनु हार्द, ओ माटेनी दलीलो, अनां प्रमाणो - आ बधांने सम्बन्धित साहित्य उपलब्ध नथी. तेथी ते विशे विमर्श करवो शक्य नथी.
ओक विचार आवे छे के साङ्ख्यमत सत्कार्यवादी छे. अर्थात् ते मते सर्व कार्य उपादान कारणमां पहेलेथी प्रच्छन्नपणे विद्यमान ज होय छे. सहकारीभूत निमित्त कारणो द्वारा मात्र तेमनो प्रकटभाव ज थाय छे. प्रामाण्यअप्रामाण्य पण जे ज रीते कार्यात्मक धर्मो छे, तो तेमने पण तेमना उपादान कारणमा पहेलेथी विद्यमान ज गणवा जोइओ अने तेथी तेमनो स्वतः उत्पाद समजी शकाय.१ जो के आ ओक कल्पनामात्र छ, वास्तविकता | होई शके ते साहित्यना अभावमां समजवं मुश्केल छे.
अ ज रीते चार्वाक अने योग दर्शन, आ बाबतमा मन्तव्य शुं छे ते पण नथी जाणवा मळतुं. जो के वैशेषिक दर्शन- आ विषयमा स्वतन्त्र मन्तव्य अनुपलभ्य होवा छतां, न्याय दर्शन साथे घणी बाबतोमा समानतन्त्र १. आ विचारणानी आडकतरी रीते पोषक अक वात सन्मति० वृत्ति पृ. ४ पं. ९ पर जोवा
मळे छे. त्यां चोखवट करवामां आवी छे के "अमे मीमांसको स्वतःप्रामाण्यनो स्वीकार सत्कार्यवादनो आश्रय लईने नथी करता." आनो मतलब ओ समजी शकाय के सत्कार्यवादथी पण स्वतःप्रामाण्य ज सिद्ध थतुं हशे.