SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ अनुसन्धान-६९ उत्पत्ति अने ज्ञप्ति - बन्ने रीते परतःप्रामाण्यनो आदर हतो. पण पाछळ्थी सैद्धान्तिक रीते सघळांये प्रमाणोमां तेओओ परत:प्रामाण्यनो पक्ष स्थिर कर्यो. आनाथी विरुद्ध मीमांसको वेदने अपौरुषेय (-अकर्तृक) गणता हता. वळी तेमना मतमां ईश्वरनो पण स्वीकार न हतो. तेथी, तेओ शब्दप्रमाणमां उत्पत्ति के ज्ञप्ति - अके रीते परतःप्रामाण्य स्वीकारी शके तेम न हता. अटले तेओओ स्वतःप्रामाण्यनो ज आग्रह राख्यो. मतलब के तेओना मते 'वेद यथार्थज्ञानी आप्त पुरुषथी प्रणीत छे, माटे प्रमाण छे' आवी विचारणाथी वेदनुं प्रामाण्य गृहीत नथी थतुं, पण वेद प्रमाणभूत तरीके स्वयं प्रतिष्ठित छे. अने ओ प्रामाण्य पण अना कर्ताना यथार्थज्ञानने लीधे नथी आव्यु, केम के जे अपौरुषेय होवाथी अनो कोई कर्ता ज नथी, पण वेद स्वयंसिद्ध प्रामाण्य धरावे छे. माटे वेदमां प्रामाण्यना जनक अने ग्राहक यथार्थज्ञान अने आप्तत्वना आश्रय तरीके ईश्वर सिद्ध थई शके नहि. आगळ जतां मीमांसको माटे स्वतःप्रामाण्य सघळाओ शाब्दबोधमां अने ओथीये आगळ वधीने सघळांये प्रमाणोमां सिद्ध करवू जरूरी बन्यु. कोईक जग्याओ परतः अने कोइक ठेकाणे स्वतः - अम वैकल्पिक नियमन अस्याद्वादी मीमांसको माटे शक्य न हतुं. तेथी मीमांसक मते स्वतःप्रामाण्यनो सिद्धान्त स्थिर थयो. जो के शरुआतमां तो आ चर्चा मीमांसक-नैयायिक वच्चे ज मर्यादित हती. पण क्रमशः अन्य दर्शनोने पण, आ चर्चाना प्रभाव हेठळ, पोतपोतानुं मन्तव्य दर्शाववान अने आ चर्चामां भाग लेवानु जरूरी बन्यु. जेने परिणामे भारतीय तत्त्वज्ञाननी परम्परामां प्रामाण्यवादने लगतुं विपुल अने विस्तृत साहित्य सर्जायु. जेमां उद्योतकरना न्यायवार्तिक व.ना सरल तर्कोथी मांडीने गदाधर भट्टाचार्यना प्रामाण्यवादनी जटिल तर्कजाल सुधीनो समावेश थाय छे. अने हजु पण अने लगतुं नूतन साहित्य पण सर्जातुं ज जाय छे. आ साहित्यना आधारे मुख्यत्वे पांच पक्षो समजाय छे.१ १. प्रमाणत्वा-ऽप्रमाणत्वे, स्वतः साङ्ख्याः समाश्रिताः । नैयायिकास्ते परतः, सौगताश्चरमं स्वतः ॥ प्रथमं परतः प्राहुः, प्रामाण्यं वेदवादिनः । प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः, परतश्चाऽप्रमाणताम् ॥ -सर्वदर्शनसङ्ग्रहः(माधवाचार्य)
SR No.520570
Book TitleAnusandhan 2016 05 SrNo 69
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy