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अनुसन्धान-६९
जीव उधारन कलि मही तुम प्रगटे त्यारन तिरनी,
धुर अक्षर तुक सप्तकी तिन चरणनकी मैं सरनी... ५३
(त्रणे लोकमां अमना जेवा दिलना दयाळु क्याय नथी, जे सतगुरुना हैयांनी सतत संभाळ राखी रह्या छे, अखण्ड पलकथी जे राम स्मरण करतां जेनी ले थाकती नथी, जेमनी धर्ममय मूर्तिओ धरमध्वजा. लहेरावी छे, जे पोताना शरणमा राखे तेने काळनो भय सतावतो नथी, जेमणे भवजळमां तारवा अने तरवानो मर्मसार बताव्यो छे, अने कळियुगमां अनेक जीवोनो उद्धार करवा जे प्रगट थया छे, (जेना नामनो संकेत दुहानी सातमी ढूंकमां/सातमा दुहानी तूकमां थयो छे!)....... तेमना चरणोमां हुं शरण लउं छु.) छंद - पधरी -
पार करन नछ काज जान, परमाथ ज्युं भंगमांन, अडिग मेर ज्यूं जांनि आप, हिमकर ज्युं सीतलं हरन ताप, बिरखा ज ग्यांन घन करो पूर, ततकाल भरम भांगै ज दूर, गिरा ग्यांन अनभो सरूप, बां रसाल अति सै अनूंप, त्रिगुणपार भजि तीन ताप, पंच कोसके परै आप,
परम हंस मोती ज बीन, खीर नीर निरणै ज कीन... ५४
(......................... मेरु पर्वत समान अडग आपने जाण्या छे, त्रिविध ताप, शमन करवा आप हिमकण जेवी शीतलता आपनारा छो, ज्ञानरूपी घनवर्षाथी आप तमामनः भ्रमणाओ तत्काळ दूर करनारा छो, ज्ञानवाणीना साकार रूप जेवा तथा अतिशय अनुपम रसिकता दाखवनारा, त्रणे गुणथी पर ओवा आपनाथी त्रिविध ताप पांच कोश दूर रहे छे, साचां मोतीनो चारो चरनारा परमहंस अवा आप नीर क्षीरनो निर्णय करनारा छो.) दोहा - अष्टादस षट च्यार मैं, जे जे गुण अधिकार, सरब सुखांकी धांम हो - सतर जनम के पार... (सत रज नम के पार...?) ५५
(अढार पुराण, खट दर्शन अने चार वेदमां जे जे गुणो अने अधिकार- वर्णन मळे छे ते सर्वे सुखोना धाम ओवा आप सतर जनमथी पारनी