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________________ १६० अनुसन्धान-६७ जून - २०१५ १५९ रखाय छे - सचवाय छे. सामे पक्षे, अजैन साहित्यकारोए जैन साहित्य पर कार्य कर्यु होय एवा दाखला नगण्य / नहिवत् छे. आधुनिक कालमां, जो के, जैनसाहित्यनुं अध्ययन / संशोधन अजैन विद्वानो द्वारा थतुं रह्यं छे. वृन्दावनकाव्य संस्कृतभाषानुं विश्वप्रसिद्ध काव्य छे. ए शब्द चमत्कृति / शब्दालङ्कारथी समृद्ध छे. संस्कृत भाषानी मूळभूत विशेषताना कारणे शब्दरमत करवानो कविओने घणो अवकाश मळे छे. शब्दकोश, व्याकरण, कल्पना - इत्यादि वस्तुओ पर प्रखर प्रभुत्वना कारणे वृन्दावन काव्यना कर्ताए पंक्तिए पंक्तिए प्रासानुप्रासना ढगला कर्या छे. आवी रमत करवा जतां कृति क्लिष्ट अने दुर्बोध बनी जवानो भय रहे, परन्तु आ काव्य प्रसन्न-मधुर बन्युं छे, एक जैन मुनि रचित टीका अहीं सम्पादित थईने प्रकाशमां आवी छे. कृतिनुं सम्पादन स्वच्छ अने सुन्दर थयुं छे. महाकवि मेघविजय गणीनी बे अप्रगट कृतिओ आ अङ्कमा प्रथम वार बहार आवे छे. सहज-सरस यमकोथी कृतिने अलङ्कृत कराइ छे. आ महाकविए मारुगूर्जर भाषामां रचनाओ करी ज होय, परन्तु उपलब्ध नथी. एमनी एक मारुगूर्जर रचना अहीं प्रकाशित छे. विजयसेनसूरि प्रत्ये असीम गुरुभक्तिनां दर्शन करावती बे गूर्जर रचनाओ रसपूर्ण छे अने साथे महत्त्वपूर्ण पण छे. अनु०ना सम्पादकश्रीए आना महत्त्व विशे नोंध करी छे. आ पत्र विज्ञप्तिपत्र नथी पण ऊर्मि-पत्र छ, कविहृदयी शिष्योनी गुरुभक्ति आमां उछाळा मारती सरितानी जेम वही नीकळी छे. पृ. ७६, नीचेथी त्रीजी पंक्तिमां 'चोर वखार' छे; अहीं 'चोरचखार' वाचवू जोइए, 'चोरचखार' शब्द कच्छीमां आजे पण बोलाय छे. पृ. ७८, पं. १२'विलगुअछु' एम छपायुं छे. 'विलगु अछु' एम वांचवें जोईए. एनो अर्थ छ: 'वळग्यो छु'. (वळगुं छु - नहि). 'मेघकुमारना बारमासा' भावसभर वैराग्यप्रेरक रचना छे. वाचना शुद्ध छे. 'अम्बिकाचउपइ' पण शुद्ध छपाई छे. क. ४मां चोपड़ शब्द छे ते चोपदचोपगांना अर्थनो नथी. चोपड़ एटले घी. बार व्रतनी वही विस्तृत अने विवरणयुक्त छे, नजीकना समयनी छे एटले व्रतग्रहण करनारने मार्गदर्शक बने एवी छे. 'अर्हत् पार्श्वनो असली समय' लेख पुरातत्त्व । इतिहासना प्रखर विद्वान श्री ढांकी तरफथी मळे छे. शोध/संशोधननी आधुनिक परिपाटी साक्ष्य, प्रमाण, तुलना अने तर्कने महत्त्व आपे छे. एकथी वधारे स्रोतोमांथी सन्दर्भो मेळवीने चकासे छे. भ. महावीरना जन्मस्थान, विचरणक्षेत्र विशे, हरिभद्रसूरि के दिवाकरजीना समय विशे जुदा जुदा विद्वानोए ऊहापोह को छे अने पोतपोताना निष्कर्ष आण्या छे. परम्परा कथा-किंवदन्तीमां पण तथ्यांशो पड्या होय छे अने तेने पण संशोधननी एरण पर चडावीने तपासवामां आवे छे. प्रस्तुत लेखमां ए रीते विचारणा थई छे. आ प्रकारनी तपास चालती रहे ए आवकार्य छे. तर्कथी बधी ज वस्तुओनो निर्णय थई नथी शकतो ए जेटलुं साचुं छे एटलुंज ए पण साचुं छे के ज्यां तार्किक अभिगम नथी होतो त्यां भय, भ्रान्ति अने अन्ध अनुकरण पांगर्या विना रहेतां नथी. 'जैनदर्शन का नयसिद्धान्त' तथा 'जैनदर्शन का निक्षेपसिद्धान्त' - बंने लेख अभ्यासीओ माटे उपयोगी छे. "कज्जमाणे कडे'मां नयसम्मति' शीर्षक लेखमा सुन्दर छणावट थई छे. प्रत्येक नयना शुद्ध अने अशुद्ध एवा बे रूप स्वीकारवामां आव्या छे. प्रथम नयनु कथन तेनी पछीना नयमां पण विषय बनतुं होय छे जे ते नयनो अशुद्ध प्रकार गणाय छे. एक-बीजामां नयो आ रीते मिश्रित थता होय छे ए मुद्दो प्रस्तुत चर्चामां ध्यानमा लेवा जेवो खरो. आ प्रकारनी चर्चाओ आक्षेप-प्रत्याक्षेपनी रीते नहि पण विषयनो बोध स्पष्ट करवा अर्थे थाय तो ते आवकार्य गणावी जोईए. जैन देरासर नानी खाखर - ३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात
SR No.520568
Book TitleAnusandhan 2015 08 SrNo 67
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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