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जून २०१५
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अध्ययन की तेईसवीं गाथा (१ / ११ / २३) में इसी अर्थ में 'वुज्झमाणाण' शब्द बिना पाठान्तर के प्राप्त होता है । श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र के द्वितीय संवर द्वार के द्वितीय 'सत्य' अध्ययन में भी 'वुज्झइ' का प्रयोग प्राप्त होता है। इसी प्रकार श्रीउत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें केशीगौतमीय अध्ययन में भी ६५वीं एवं ६८वीं गाथा (२३/६५, ६८) में 'वुज्झमाणाण' शब्द इसी अर्थ में बिना पाठान्तर के प्राप्त होता है। उक्त तीनों आगमों में इसी पाठ को स्वीकारा है । [" वुज्झमाणाण पाणाणं, कच्चंताण सकम्मुणा"
- श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र १/११/२३ / ५१७ (मजैवि. मधु.)] [" महाउदगवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं"
[" जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं"
- श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २३ / ६५ (मजैवि. स्वा. ) ]
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[" सच्चेण य उदगसंभमंमि वि न वुज्झइ "
श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र, श्रुतस्कंध २ अध्ययन २ सूत्र १२० (मधु. ) ] इसके अतिरिक्त आचारांगसूत्र की चूर्णिसम्मत वाचना, तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि कृत टीका में आगत आचारांगसूत्र का उद्धरण, आचारांगसूत्र की चूर्णि, निशीथचूर्णि, भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक, पउमचरियं, गाथासप्तशती (गाहाकोस), वैराग्यशतक, प्रश्नव्याकरणवृत्ति तथा इसिभासियाई में भी 'वुज्झ' धातु के प्रयोग प्राप्त होते हैं ।
["सो अणासातए अणासायमाणे वुज्झमाणाणं पाणाणं"
श्रीआचारांगसूत्र १/६/५/१९७ (मजैवि. मधु.)] [प्रोक्तं हि भगवद्भिः - "उट्ठिएसु... इत्यादि यावत् वुज्झमाणाणं जहा से दीवे असंदी ।"
- श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २३ / ६८ (मजैवि. स्वा.)]
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- तत्त्वार्थसूत्र पर सिद्धसेनगणिकृत वृत्ति, पृष्ठ २४ ] [" वुच्चति "वुज्झमाणाणं पाणाणं ४ वाहिज्जमाणाणं वा "
- आचारांगचूर्णि पत्रांक २४०] [णातिदूरं वुज्झति । मज्झिमो दूरतरं । निरातो सुदूरं वुज्झति" - आचारांगचूर्णि १ / २ / २ / ६० (भाग १, पृष्ठ १०६ ) ]
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[" कंटगेसु वा विज्झति, उदगवाहेण वा वुज्झइ"
निशीथचूर्णि (भाष्यगाथा ३१२६) भाग ३, पृष्ठ १२२] ["पहसियफेणाए मुणी नारिनईए न वुज्झति "
["मरणतरङ्गुग्गाए संसारनईए वुज्झमाणस्स "
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[" वुज्झतस्स महामुणि हत्थावलम्बं महं देहि"
अनुसन्धान-६७
भक्तपरिज्ञा गाथा १२९]
- पउमचरियं पर्व ८३ श्लोक ४]
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• पउमचरियं पर्व १०२, श्लोक २०० ] [उदएण वुज्झमाणं, सबालवुड्डाउलं दीणं"
- पउमचरियं पर्व १०२, श्लोक २५] [" वुज्झसि पियाइ समयं तह विहुरे भणसि कीस किसरत्ति" - गाथासप्तशती, तृतीय शतक, गाथा २५ ] [" वासासुऽरणमज्झे, गिरिनिज्झरणोदगेहिं वुज्झतो"
- वैराग्यशतक, गाथा ८२ (सन्मार्ग प्रकाशन, संपादक श्रीपुण्यकीर्तिसूरि ] [ उदकसम्भ्रमस्तत्रापि न वुज्झइ 'त्ति वचनपरिणामान्नोह्यन्ते न प्लाव्यन्ते" प्रश्नव्याकरणसूत्र, अभयदेवकृत वृत्ति, द्वितीय संवरद्वार ] ["बीए संवुज्झमाणम्मि, अंकुरस्सेव संपदा"
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- इसिभासियाई १५ / ६ ] श्री हेमचन्द्राचार्य से पूर्व हुए वररुचि (कात्यायन) कृत प्राकृतव्याकरण 'प्राकृतप्रकाश' पर वसन्तराजकृत 'प्राकृतसंजीवनी' नामक टीका है। उसके अनुसार "दुहि लिहि वहा दुज्झ-लिज्झ-वुज्झा:' (अध्याय ७ सूत्र ६३) इस सूत्र से 'वह' धातु का कर्मवाच्य में 'वुज्झ' आदेश होता है।
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क्रमदीश्वरकृत संक्षिप्तसार के अन्तर्गत 'प्राकृताध्याय' नामक प्राकृतव्याकरण के अध्याय ४ सूत्र ७९ की वृत्ति में दुह-दुज्झ, लिह-लिज्झ, वहवझ कहा है।
उपर्युक्त अनेकविध प्रमाणों के आधार से यहाँ 'वुज्झइ' पाठ स्वीकारा गया है । यह बात इससे भी पुष्ट होती है कि हेमचन्द्राचार्य द्वारा इसी सूत्र
1. The Prakrit Grammarians (pg. 56) by Luigia Nitti-Dolci.